३. उसने कहा था कहानीकार :चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी'
कठिन शब्दार्थ :-
मरहम लगाना=दवा लगाना
तरस खाना =दया दिखाना
सताना =तंग करना
उदासी के बादल फटना=दुःख दूर होना
चकमा देना=धोखा देना
किलकारी =खुशी की
पैरवी करना=
ख़िताब=उपाधी
नीलगाय=
लेखक परिचय :-
सारांश:
चंद्रधर शर्मा "गुलेरी" की यह कहानी उनको हिंदी कहानी साहित्य गगन में चार चान लगा दिये।
लहनासिंह अपनी एक पक्षीय प्रेयसी के पति और पुत्र के प्राण बचाने अपने प्राण देता है.इस कथानक को मर्मस्पर्शी ढंग से लिखकर लेखक ने पाठकों के दिल में स्थायी स्थान पा लिया।
अमृतसर के चौक की एक दूकान पर बारह साल का एक लड़का और आठ साल की लड़की अकस्मात् मिलते हैं।दोनों एक दूसरे से परिचित होने के बाद रोज़ लड़का लड़की से पूछता है कि क्या तेरी शादी हो गयी। वह रोज "धत" कहकर दौड़ जाती है। एक दिन लड़की ने 'हाँ' कहा और उसके प्रमाण में रेशम से कढ़ा हुआ सालू दिखाया और भाग गई।
लड़के के मन में उस लड़की से प्रेम था। लेखक ने उसके प्रेम को यों लिखा है ---लड़की भाग गयी,पर लड़के रस्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया। एक छाबड़ीवाले के दिन -भर की कमाई खोयी,एक कुत्ते पर पत्थर मारा;एक गोभीवाले के ठेले में से दूध उंडेल दिया;सामने नाहकत आती हुयी किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधी पायी,तब कहीं घर पहुँचा। उसके एक पक्ष प्रेम को लेखक दर्शाने के बाद की कहानी पच्चीस साल के बाद शुरू होती है। यह अंतर में इतना सम्बन्ध है कि कहानी और रोचक बन जाती है. लड़के का नाम लहना सिंह है।
अमृतसर बाज़ार की उपर्युक्त घटना के बाद जर्मन की युद्ध भूमि के खंदकों में कहानी जुड़तीहै।
वहाँ लुधियाना से दस गुना जाड़ा है। वजीरा सिंह उस पलटन का विदूषक था। उसी के कारण वहाँ की उदासी खुशी में बदल जाती है।
लहनासिंह बड़ा होशियार था। वहाँ के सूबेदार वज़ीर सिंह था। उसका बेटा बोधा सिंह था। एक बार लहनासिंह छुट्टियों में सूबेदार के यहाँ गया। तभी उसको मालूम हो गया कि सूबेदारनी वह लड़की थी जिसे वह अमृतसर के बाज़ार में मिला करता था। तब सूबेदारनी ने कहा कि मेरे पति और बेटे की रक्षा करना। तब वह यह घटना भी याद दिलाती है कि अमृतसर केबाजार में एक दिन तांगेवाले का घोडा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। उस दिन लहनसिंह ने उस लड़की के प्राण बचाये थे। वैसे ही बचाना। तब से लहना सिंह उन दोनों की देखरेख करता था। इसको पाठक तभी समझ सकते हैं जब लहना शत्रुओं से वज़ीर सिंह और बोधसिंह को सुरक्षित भेजकर गोली खाकर मृत्यु की अवस्था में पुराणी स्मृति में अंतिम घड़ी में है। यही हृदयस्पर्शी चित्रात्मक वर्णन है।
जर्मन का एक सैनिक अफ्सर भारतीय लपटन साहब बनकर आया था। उसकी शुद्ध उर्दू से लहनासिंह को मालूम हो गया कि वह छद्मवेशी जर्मनी है। उसने सिगरेट दी ;और बताया कि नीलगाय के दो फुट सिंग थे।
तुरंत वह वजीरा को खबर दी और भेज दिया। केवल आठ ही भारतीय वीर सिपाही सत्तर से ज्यादा जर्मन सिपाहिए को मरने में समर्थ हुए। नकली लपटन साहब के हाथ जेब में थे। उसी की गोली से लहना घायल हो गया। फिर भी बोधासिंह को अमबुलंस में सुरक्षित भेज दिया। तब उसने बोधासिंह से सूबेदारनी को खबर दी कि मुझसे उसने जो कहा था वह मैंने कर दिया।
इन पहली स्मृतियों और सूबेदारनी की बात पालन करके लहनासिंह चल बसा। यही उसने कहा था।
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा --
फ्रांस और बेल्जियम --६८ वीं सूची --मैदान में घावों से मारा -नं ०. ७७ सिख राइफ़ल्स जमादार लहनासिंह।
वास्तविक कारण केवल लहनासिंह को ही मालूम था। अपने लड़कपन के अबोध प्रेम निभाने जान दी है।
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