Tuesday, March 1, 2016

रश्मिरथी कथा सार


1.  "रश्मिरथी " की कथावस्तु  को संक्षिप्त रूप  में  प्रस्तुत कीजिये   I


   रश्मिरथी  रामधारीसिंह  दिनकर जी का खंड काव्य हैं.
इसमें  महाभारत  का अनुपम दानी  कर्ण  का चित्रण  मिलता  है I

               रश्मिरथी  का अर्थ होता है ,सूर्य की किरणों  का  रथ I   सूर्य के बेटे ,कुंती पुत्र  महारथी  कर्ण  का यशोगान  करना ही  काव्य का उद्देश्य है I महाभारत  में यशस्वी  दानी पात्र कर्ण हैंI

कर्ण  की कथा की पृष्टभूमि  में वह  अपनी माँ  से  ठुकरा हुआ  पात्र  हैI  कर्ण की माँ  कुमारी थीIतब  कर्ण  का जन्म हुआI लोक मर्यादा की रक्षा के लिए कुंती ने  अपने नवजात शिशु को एक  मंजूषा में बंद करके नदी में  बहा दियाI  वह मंजूषा  अधिरथ नाम के सूत को मिलीI 
अधिरथ  संतान भाग्य से वंचित थाI  मंजूषा में कर्ण-कुंडल  से युक्त तेजोमय  शिशु को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो गया Iअधिरथ और उनकी पत्नी राधा दोनों अति प्यार से बच्चे को लालन-पालन करने लगेI.
बच्चे का नाम  कर्ण  पड़ाIराधा के पालित होने से कर्ण का दूसरा नाम पड़ा राधेयI

    कथा अति प्राचीन काल की हैI हस्तिनापुर  का  प्रतापी राजा ययाति थाI  उनके  बाद उनका छोटा पुत्र  पुरु  राजा  बनाI पुरु वंश  में  भरत  हुए I  आगे इसी वंश में कुरु  पैदा हुए I उनके नाम से  उनके वंशज  कौरव  कह्लाये  गए I द्वापर युग के  अंत  में महात्मा शांतनु  का जन्म हुआI शांतनु  और गंगा  की शादी  हुई I शांतनु  का  पुत्र था  देवव्रतI शांतनु  ने निषाद कन्या सत्यव्रत  से शादी की I सत्यव्रत के  पिता के शर्त  के अनुसार  देवव्रत  ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा  की I इसलिए देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा I शांतनु और सत्यव्रत  के दो पुत्र हुएI उनके नाम थे  चित्रांगद और विचित्र वीर्यI चित्रांगद  को  गन्धर्व  ने युद्ध में मार डाला I
  युद्ध क्षेत्र में  वीर गति मिली I भीष्म  ने जबरदस्त अम्बिका और  अम्बालिका  को ले आयेI उन दोनों की शादी विचित्र वीर्य से हुई I पर क्षय रोग से पीडित विचित्र वीर्य  मर गया Iसत्यवती  वंश वृद्धि  की चिंता में  थी Iभीष्म  की सलाह  से वेदव्यास  को सत्यवती ने बुलाया और अनुरोध किया  कि  अम्बिका और अम्बालिका को  पुत्र  दें I  वेदव्यास अम्बिका से मिलने गए तो उनके भयानक रूप देखकर डर गयी  और आँखें बंद  कर  लीI  इसी कारण से अम्बिका  का  पुत्र अँधा हुआ I उनका नाम  पड़ा ध्रुतराष्ट्र I 

उसके बाद छोटी बहु अम्बालिका  गयी ,डर  के कारण उसका मुख पीला पड़ गयाI उसके  पुत्र  का  नाम  पीलापन पड़ने से पांडू   पड़ा I गंधार  देश  के राजा सुबल गांधारी से ध्रुतराष्ट्र  की शादी हुई I पांडू राजा की दो शादियाँ हुईंI पहली  पत्नी शूरसेन की पुत्री  पृथा  या  कुंती  थी  और  दूसरी  थी 
मद्रदेश  की राज  कन्या  माद्री के  साथ I 
   कुंती को विवाह के पहले ही कर्ण का जन्म हुआ I कुंती  ने लोक लज्जा से बचने  शिशु को एक मंजूषा में बंद करके नदी में  बहा दिया  I  वही  रश्मिरथी  का  नायक  कर्ण है I
    पांडू ऋषी  के शाप के  कारण  स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध नहीं रख सकते I पांडू  ने कुंती से संतानोत्पत्ति  के लिए  आग्रह किया I कुंती को  शादी  के पहले ही एक मन्त्र मालूम था,जिसके बल अविवाहिता  को कर्ण का  जन्म हुआ I  अब उसी मन्त्र से धर्मराज  को बुलाया और युधिष्ठिर का जन्म हुआI  पवन देव  से  भीम और इंद्र  से अर्जुन  का  जन्म हुआ I माद्री के गर्भ  से अश्विनी कुमारों  की दया से   दो पुत्र हुए -नकुल और सहदेव  I  पांडू के निधन होते  ही कुंती ने पाँचों पुत्रों का पालन पोषण कियाI  
  ध्रुतराष्ट्र के  सौ पुत्र हुए. बचपन से ही पांडू पुत्र और्  ध्रुतराष्ट्र के पुत्रों में द्वेष भाव और दुश्मनी थी  I

ध्रुतराष्ट्र  का  बड़ा  पुत्र  दुर्योधन था  I  युधिष्ठिर  ने आधा राज्य माँगा  तो  

दुर्योधन ने   नहीं कह दिया I  कृष्ण दूत बनकर गया तो  दुर्योधन  ने कहा --हे कृष्ण !सुई के नूक बराबर  की भूमि  भी पांडवों के लिए नहीं दूँगा  I  अब  पांडव युद्ध  करने विवश हो गए I

रश्मिरथी  का उद्देश्य कर्ण की कीर्ति पर चार चाँद लगाना हैI इसमें  दिनकर जी को पूरी सफलता मिली  है I

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२. 'रश्मिरथी "  के आधार  पर प्राकृतिक सौन्दर्य का  वर्णन कीजिये I

     मनुष्य  मन   प्रकृति  के  सुन्दर  दृश्यों   को देखकर प्रफुल्लित हो जाता है  I  मनुष्य जीवन  की तुलना प्रकृति  से  करने  पर अत्यंत  आनंद  होता है  I कवि गण  तो प्रकृति  में  मानवीकरण  करने में  
आत्मानंद का  अनुभव  करते हैं I प्राकृतिक चित्रण  कवि  आलंबन रूप ,उद्दीपन रूप ,अलंकारों के रूप  में  करता  है  I

कवि प्रकृति में मानवीय भावना  का आरोपण करता है,  प्रकृति द्वारा नीति ,उपदेश देता  है I प्रकृति में  आध्यात्मिक शक्ति का रूप भी दिखाता  है.  
  रश्मिरथी  में भी कवि दिनकर   उपर्युक्त पृष्टभूमि  के अनुसार प्राकृतिक  वर्णन करते हैं.
 प्रथम दृश्य  में ही  कर्ण  के बारे में  दिनकर  कहते हैं ---
 "वन्य  कुसुम -सा  खिला कर्ण जग की आँखों से दूर "   उल्लेख करके कर्ण को जंगल  में खिले फूल कहते हैं. 
वन्य कुसुम-सा  खिला कर्ण --पूर्णोपमा  का उदाहरण  है. 
कर्ण --उपमेय ;कुसुम --उपमान ,सा -वाचक शब्द ;खिलना --धर्म.
आगे  कहते हैं --
नहीं  खिलते कुसुम मात्र राजाओं  के उपवन  में,
अमित बार  खिलते वे पुर से  दूर कुंज-कानन में.
समझे कौन  रहस्य ?प्रकृति का  बड़ा अनोखा  हाल ,
गुदड़ी में रखती चुन चुन कर  बड़े कीमती  लाल !
    कर्ण  तो कानन में खिले फूल ,गुदड़ी का  लाल --इसमें   कर्ण की क्षमता को वन का फूल सा  खिला कहना ,राजमहल का  उद्यान  तो माली की देख रेख में ,वन्य कुसुम अपने आप खिलता है और अपनी 
सुन्दरता  से ,सुगंध से संसार  को चकित करता है. वैसे ही करना का विकास अपने  आप हो रहा है.
गुदड़ी का  लाल --मुहावरा  और लोकोक्ति  कर्ण के अनुकूल  कवि ने प्रयोग  किया  है.

कर्ण  तो  बादलों से  छिपा सूर्य --प्रकट होगा  ही.
"जलद पटल में  छिपा  किन्तु ,रवि कब तक  रह सकता है ?
वैसे ही कर्ण का पौरुष   फूट पड़ा.
 कवि प्रकृति की तुलना कर्ण  के लिए  मर्मस्पर्शी  है. 
  कर्ण की वीरता देख द्रोण  अर्जुन से  कहने  लगे --
यह  राहू नया फिर कौन /?
कर्ण को राहू कहना  --अर्जुन  का यश नाश करना.अर्जुन चन्द्रमा है ति उसे निगलने  आया  है  कर्ण I
कर्ण  को प्रचंड धूमकेतु  सोचकर मन  में द्रोण  सोचते हैं --
इस  प्रचंडतम   धूमकेतु कैसे तेज हरूँगा  I
 धूमकेतु -कर्ण --धूमकेतु  के आने पर बाकी नक्षत्र मन पद जाते हैं.

 दिनकर द्वितीय सर्ग  को प्रकृति  वर्णन से  ही आरम्भ  करते  हैं.
परशुराम  के  आश्रम  का  वर्णन  यों  करते   करते हैं --

  '" शीतल ,विरल  एक  कानन शोभित अधित्यका  पर,
कहीं उत्स-प्रस्रवण चमकते ,झरते कहीं शुभ्र  निर्झरI
जहां  भूमि समतल ,सुन्दर  है ,नहीं  दीखते हैं पाहन ,
हरियालीके बीच  खड़ा है ,विस्तृत एक उटज पावन ! 

तृतीय सर्ग  में --
पांडव  वनवास  बिताकर आये ---
पावक  में कनक सदृश तपकर --आग में सोना तपकर जैसे चमकता है ,वैसे चमके पांडव.

मानव में छिपे गुण --
मेहंदी में जैसे लाली हो ,वर्तिका -बीच उजियाली हो 

पीसा जाता जब इक्षुदंड, रस की धारा  अखंड 
मेहंदी  जब सहती  है  प्रहार ,बनती ललनाओं का सिंगार !

ईख में मीठा  रस है, मेहंदी शृंगार देता है ,दोनों कष्ट सहते हैं . वैसे  ही गुण छिपा रहता है मनुष्य  में.

ऋतुओं  के  बारे में   दिनकर  जी  कहते  हैं---

"ऋतु  के  बाद  फलों  का रुकना डालों  का  सडना है ,

कर्ण ने अपनी माँ  से  कहता  है -- जो होगा ,होगा ही ; दुखी होने से कोई लाभ नहीं है ;
प्रकृति  में धूमकेतु प्रकट होना --
चंद्रमा-सूर्य  तम  में जब  छिप जाते हैं ,
किरणों  के अन्वेषी जब अकुलाते  हैं ,
तब धूमकेतु बस ,इसी  तरह आता   है ,
रोशनी जरा मरघट में फैलाता है.
  आनेवाले युद्ध  का परिणाम का प्राकृतिक चित्रण  है.
राष्ट्रकवि दिनकर ने रश्मिरथी काव्य में प्रसंगानुकूल  प्रकृति का चित्रण  किया  है.

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3. रश्मिरथी में  प्रदर्शित  सामाजिक आदर्श  सिद्ध कीजियेI

  रश्मिरथी की प्रासंगिक कथा महाभारत होने पर भी  आधुनिक काल के अनुसार  कवि ने  अपने  विचारों को प्रकट किया है.
 उनमें मुख्य है जाति-भेद  का खंडन I  जिस युद्ध को लोग धर्म युद्ध कहते हैं उसे   अधर्म  स्थापित करने में  कवि को सफलता मिली हैI

 प्रथम सर्ग में ही   कवि कहतेहैं कि  मनुष्य  का सम्मान  ,उसके कर्म पर निर्भर है ,न  जाति ,गोत्र पर.
जाति-भेद का खंडन करते हैं I

 देखिये :--'ऊँच नीच  का  भेद न माने ,वही श्रेष्ठ ज्ञानी है ,
              दया -धर्म  जिसमें  हो ,सबसे वही  पूज्य प्राणी है.
   

                       तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं  गोत्र बतलाके,
                       पाते हैं  जग  से प्रशस्ती अपना करतब दिखलाके .

केवल राजमहल में ही बढ़िया सुगन्धित फूल नहीं  खिलते , जंगल में भी खुद फूल खिलते हैं.बढ़ते हैं.
गुदड़ी के लाल भी   होते  हैं. 

वीरों के जन्म-कुल पर ध्यान देना नहीं चाहिए --
मूल  जानना बड़ा कठिन है नदियों का ,वीरों  का ,

जाति जाति का शोर मचाते  केवल कायर.क्रूर .
कृपाचार्य ,द्रोणाचार्य   जाति पर अड़े हैं  तो --

कर्ण --मैं क्या जानूँ जाति? जाति  है भुजदंड!

माँ के प्यार और निर्दयता पर कवि  ने लिखा है-- मार्ग फिसलने पर स्त्री का कलंक और शोक:-
और हाय!  रनिवास चला वापस जब राजभवन  को ,
सब के पीछे चली एक विकला मसोसती मन को I
उजाड़ गए हो स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुंती के पाँव I

कृतज्ञता  का  महत्त्व :--

कर्ण भरी   सभा  में   अपमानित  खड़ा रहा.  दुर्योधन ने  उसको अंग देश का नरेश बनाकर  सम्मानित  किया I कवि  ने  कर्ण बनकर  यों  कहा---

पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
 मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[
"कर्ण और  गल  गया "हाय , मुझपर भी इतना स्नेह I 
वीर बंधु !हम हुए आज  से एक  प्राण ,दो  देह I

परशुराम   द्वारा  शासक  हमेशा स्वार्थी  ,आज भी लोकतंत्र सरकार में भी यही चालू है :---
  "रण  केवल इसलिए  कि  वे  कल्पित अभाव  से छूट सके ,
बढे राज्य  की सीमा,जिससे अधिक जनों को लूट सके I
      --------
रण केवल  इसलिए कि  सत्ता बढ़ें ,नहीं  पत्ता डोले I
भूपों  के विपरीत  न कोई कहीं  कभी कुछ भी बोले I

चुनाव या युद्ध की विजय से अहं बढ़ता जाता है:--

ज्यों -ज्यों  मिलती विजय ,अहम् नरपति  का बढ़ता जाता है,
और  जोर से वह  समाज  के  सिर  पर  चढ़ता  जाता  है  I

ब्राह्मणों की लाचारी  पर  परशुराम :---
  " यहाँ  रोज  राजा ब्राह्मणों  को अपमानित करवाता  है I
चलती  नहीं यहाँ पंडित  की ,चलती नहीं तपस्वी की ,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जय यशस्वी की I

संसार  पर आरोप --लोभी और भोगी संसार --
"चारों  ओर  लोभ की ज्वाला , चारों ओर  भोग  की 'जय '
पाप-भार से दबी धँसी जा  रही धरा पल-पल  निश्चय I

शासक  और समाज की दशा पर आरोप :-
रोक-रोक से नहीं  सुनेगा,नृप -समाज  अविचारी  है ,
ग्रीवाहार  निष्ठुर  कुठार  का  यह मदांध अधिकारी है I

परशुराम द्वारा सच्ची वीरता के लक्षण कवि यों  कहते हैं ---
'वीर  वही है ,जो कि  शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है ,
मानवता के महा गुणों की सत्ता भूल  न जाता  है  I

संसार छल -कपट  से दूर  रहे :--
परशुराम  को पता चल जाता है  कि  कर्ण सूत पुत्र है .
कर्ण  कहता  है ---छली  नहीं  मैं  हाय I किन्तु छल का ही तो यह  काम  हुआ,
आया  था विद्या संचय को ,किन्तु व्यर्थ बद नाम हुआ I
 छल  से  पाना  मान  जगत  में किल्विष ,मल ही तो है ?
ऊँचा  बना  आपके  आगे ,सचमुच यह छल ही  तो  है I

श्री कृष्ण  शान्ति स्थापित  करने  में असफल हुए  तो 
कर्ण से युद्ध  के परिणाम प्रकट करते हैं ---
बाहर शोषित  की  तप्त धार ,भीतर  विधवाओं की  पुकार I
निरशन ,विषरण  विल्लायेंगे ,
बच्चे अनाथ  चिल्लायेंगे I

अधर्म युद्ध :-- महाभारत का युद्ध धर्मयुद्ध था या नहीं, उपंसहार यह निकलता है कि कोई भी युद्ध धर्मयुद्ध नहीं हो सकता। युद्ध के आदि, मध्य और अन्त सब पापयुक्त होते हैं। जब हिंसा आरम्भ हो गयी, तब धर्म कहाँ रहा? युद्ध मनुष्य इसलिए करता है कि वह जल्दी से अपना लक्ष्य प्राप्त कर ले। किन्तु लक्ष्य की प्राप्ति को धर्म नहीं कहते। धर्म तो लक्ष्य की ओर सन्मार्ग से चलने का नाम है, धर्म साध्य नहीं, साधन को देखता है। किन्तु युद्ध में प्रवृत्त होने पर मनुष्य का ध्यान साधन पर नहीं रहता, वह किसी भी प्रकार विजय चाहने लगता है। और यही आतुरता उसे पाप के पंक में ले जाती है, फिर क्या आश्चर्य कि युद्ध में प्रवृत्त होने पर, कौरव और पाण्डव, दोनों ने पाप किये, दोनों ने विजय-बिन्दु तक पहले पहुँच जाने को सन्मार्ग का त्याग किया। इसके बाद घटोत्कच वध की कथा आती है। कर्ण का पाण्डव सेना पर भयानक कोप देखकर भगवान घटोत्कच को बुलाते हैं। 
           

  रश्मिरथी  खंड काव्य   में  सामाजिक आदर्श  के लिए   निम्न बातें  मिलती हैं---

१. समाज में पटुता की प्रधानता  की ज़रुरत हैं.

२. जाति-भेद मिटाना  है.

3. युद्ध  तो शासकों  के स्वार्थ के  लिए ,न जनता की भलाई केलिए.

4. अविवाहित  माता का पुत्र अपमानित  नहीं.
5. ब्भागावन कृष्ण  के छल  कपट.
६. परशुराम  ,कृपाचार्य ,द्रोण  सब शिष्यों की जाति पर ही ध्यान देते हैं , यह ठीक नहीं  हैं.
७. परशुराम  तो कर्ण की प्रशंसा करते हैं;  युद्ध और  राजनीति  शासकों के स्वार्थ के लिए.
८. कुंती जैसी निर्मम माता का खंडन 

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रश्मिरथी    के  आधार पर  भाषा-शैली की विवेचना  कीजिये I

   रश्मिरथी  की भाषा शुद्ध साहित्यिक खडी बोली है I  भाषा सरल है और तत्सम शब्दों का भरमार है  I     भाषा सहज ,तार्किक और मनोवैज्ञानिक  है I
शब्दों  का प्रयोग  भावानुकूल  है I व्याकरण की दृष्टि से कवि ने  अपनी  रचना शैली को अपनाया है I इसमें लिंग वचन के दोष भी मिलते हैं I 
इस  काव्य में मुहावरों  का प्रयोग भी हुआ  है.
संवाद शैली  का यथोचित प्रयोग  किया गया  है --परशुराम -कर्ण ,श्री कृष्ण -कर्ण संवाद ,कुंती -कर्ण संवाद में पांडव पक्षों के  अधर्म और छल  का प्रकट करके   अपने उद्देश्य का प्रमाणित कर दिया है  कि  महाभारत युद्ध धर्म नहीं ,अधर्म हैI


लिंग  दोष --
अंधड़  बनकर उन्माद उठा ,दोनों दिशी  जय -जयकार  हुई  I

रखा  कर्ण  के सर पर अपना मुकुट  उतार ;
गूँजा  रंगभूमि  में दुर्योधन  का  जय-जय कारI

जय-जयकार  शब्द स्त्रीलिंग /पुल्लिंग दोंनों में  हुआ  है  I

वचन  दोष :- सुयोधन  बालकों  -सा  रो रहा था I
 बालक -सा  रो रहा था ठीक  है I

उर्दू  शब्दों  का प्रयोग :-दिनकर   इस काव्य में --शूरमा .गुदड़ी के लाल ,शाबाश, कुर्बानी ,तकदीर  जैसे शब्दों  का प्रयोग किया  है I
   मुहावरों  का प्रयोग :-

अनोखा समां बांधना ,आँखे खोलकर देखना ,फूले न  समाना ,काँटों में राह बनाना ,गल  जाना,अश्रु गंगा बहाना ,असमंजस  में पड़ना   जैसे मुहावरों का भी प्रयोग हुआ  है.

  १.गुदड़ी के लाल ,२.पत्थर पानी बनना ,3.सर्पिणी-उदर से जो पीयूष न दे पायेगा 4.युग पुरुष  वही  सारे समाज का विहित धर्म गुरु होता है I सब के मन का जो अन्धकार अपने प्रकाश से धोता है.
5.दया-धर्म जिसमे हो ,सबसे  वही पूज्य प्राणी I जैसे सूक्तियों की कमी नहीं  हैं .

थोड़े में कहें तो दिनकर की भाषा खडी बोली सरल ,बोधगम्य और उच्चकोटी  की है. 

   काव्योचित  अलंकार ,रस और छंदों का भी प्रयोग हुआ है I

वह काव्यतत्व के अंतर्गत हैं I वीर ,रौद्र  रस प्रधान हैं Iउपमा,उत्प्रेक्षा ,संदेह ,दृष्टांत आदि अलंकार भी मिलते हैं. 

  भाषा शैली की दृष्टि से रश्मिरथी एक सफल खंड -काव्य है. 

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चरित्र  चित्रण 



             कर्ण 

    रश्मिरथी  खंड काव्य  का  नायक  है कर्ण. सूर्य पुत्र होने के कारण रश्मिरथी  कर्ण का  नाम है I  

     उसका जन्म अविवाहिता कुंती से हुआ;जन्म लेते ही उसकी माँ  ने उसको एक मंजूषा  में बंद करके नदी मन बहा दिया I राजमहल का कर्ण  एक जातिहीन  सूत पुत्र  बन गया Iनदी में बहाई पिटारी अधिरथ  नामक सारथी को मिली I उस की पत्नी राधा थी ;दम्पति निःसंतान थे I इसलिए उसका पालन -पोषण अति प्यारसे  करने लगे. राधा के पुत्र होने सेकर्ण कानाम राधेय  भी है.
 कवि  कर्ण  का परिचय  यों  देता है :-

सूत वंश में पलकर  भी  वह अदभुत  वीर है.

'जिसके  पिता सूर्य थे,माता सती  कुमारी !

 उसका पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी I

सूत वंश में पला,चखा भी नहीं जननी का क्षीर I

निकला  कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर I"

 आजकल डाक्टरों  का कहना है ,माँ के दूध न पीने पर बच्चा दुर्बल बनेगा I
कवि  कहता  है  माँ  का दूध नहीं चखा ,पर कर्ण अद्भुत वीर निकला.

आगे कर्ण की प्रशंसा में कवि  कर्ण को वन्य कुसुम  कहता है.

  नहीं फूलते कुसुम  मात्र राजाओं के उपवन में 

अमित बार खिलते  वे पुर से दूर कुंज -कानन  में I
समझे  कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल ,
गुदड़ी में रखती चुन--चुनकर   बड़े कीमती  लाल I

 इससे सिद्ध है  कर्ण इस  काव्य का नायक  हैI

   कर्ण  अपना  परिचय  यों  देता हैं :-

'मैं  नाम  गोत्र से हीन ,दीन  खोटा हूँ I

सारथी  पुत्र  हूँ ,मनुज  बड़ा छोटा  हूँ  I

 उस  काल  में सामंतिवाद और रूढ़ीवाद  का प्रचलन  था I जाति  और कुल के  नाम से कृपाचार्य  उनको हीन और प्रतिस्पर्धा  में भाग लेने अयोग्य कहते हैं i उनके उत्तर कर्ण स्वाभिमान से देता है. उसके आदर्शवाद और स्वाभिमान  का  परिचय  मिलता है.

     "जाति  -जाति  रटते ,जिनकी  पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति है ये मेरे भुजदंड I
दुर्योधन  ने आचार्य से कहा :--

"बोला - बड़ा पाप  है करना इस प्रकार अपमान ,
उस  नर को जो दीप रहा  हो .सचमुच  सूर्य समान I"

दुर्योधन  कर्ण को अनमोल रत्न कहता है.

 द्रोण  ने  अर्जुन  से  कर्ण को राहू  कहा ;और  कहा --

मुझे  कर्ण में चरम-वीरता  का लक्षण मिलता है.
    इस   प्रकार  प्रथम सर्ग में ही  कर्ण  काव्य के महानायक  के रूप में  चमक 
पड़ता है I कुन्तीदेवी  को मालूम हो गया कि  कर्ण उसी का पुत्र है ;पर 
चुप दुखी मन से चलती  है.

आदर्श  मित्र  कर्ण :--

कर्ण  के मन  में  परिवर्तन लाने की कोशिश में  श्री कृष्ण  कर्ण  से कई बातें

कहते  हैं  और पांडवों  के बड़े भाई  कहकर प्रलोभन भी देते हैं. पर कर्ण 

कृतघ्न बनना नहीं  चाहता .  मित्रता  के मूल्य को कर्ण  ने श्री कृष्ण से कहा ---

 मित्रता बड़ा अनमोल रतन ,कब इसे  तोल सकता  है  धन ?

धरती  की तो  है  क्या बिसात ?आ  जाय अगर वैकुण्ठ हाथ ,

उसको भी  न्योछावर कर दूँ , कुरु पति  के चरणों  पर धर दूँ I

  है ऋणी कर्ण  का रोम -रोम ,जानते यह सत्य सूर्य -सोम I

तन,मन ,धन  दुर्योधन  का  है,यह  जीवन दुर्योधन  का  है I

 सुरपुर से भी मुख  मोडूँगा,केशव !मैं उसे  न  छोडूंगा I

 आगे कृष्ण से कर्ण  कहता  है ---मेरी जन्म कथा  युधिष्ठिर  से मत कहना I

क्योंकि  साम्राज्य न  कभी  युधिष्ठिर  न  लेंगे . सारी सम्पत्ति मुझे  देंगे ,

मैं  भी उसे  न  पाऊंगा, दुर्योधन को  दे जाऊंगा I

पांडव वंचित रह  जायेंगे,  दुःख से न  छूट   वे  पाएँगे I

कर्ण की मित्रता देख  कृष्ण ने  कहा ---

वीर !शत  बार धन्य ,तुझ -सा न मित्र कोई अनन्य I
तू कुरूपति का ही नहीं प्राण 
नरता का  है भूषण  महान !

कुंती  से  कर्ण  ने  कहा --

वे  छोड़  भले ही  कभी कृष्ण  अर्जुन को ,मैं  नहीं छोडनेवाला  दुर्योधन  को I

 ऐसे आदर्श  मित्र  पाना  मुश्किल  है.



कुंती  के बारे में   कर्ण   कृष्ण से कहता है ---

कुंती तो निर्दयी  है .

माँ  का  पय  भीं पिया  मैंने ,उल्टा अभिशाप लिया  मैंने I
वह  तो यशस्विनी बनी रही,सबकी भौं  मुझ पर तनी रही I

कन्या  वह है अपरिणीता,जो कुछ  बीता  मुझपर बीता I

मैं जाति गोत्र से हीन ,दीन  राजाओं के सम्मुख मलीन ,
जब रोज अनादर पाता  था, कह शूद्र पुकारा  जाता था I
पत्थर  की छाती फटी नहीं ,कुंती तब भी  तो कटी नहीं.

कर्ण दानवीर  भी है  I कवि उसकी दानशीलता का  यशोगान यों  करते हैं :-

पहले  ऐसा  दानवीर धरती पर  कब आया था ?
इतने  अधिक जनों को किसने यह सुख  पहुंचाया  था ?
और सत्य ही कर्ण  दान  हित ही संचय  करता था I

वीर  कर्ण ,विक्रमी ,दानी  दान  का    अति  अमोघ  व्रत धारी I

पाल रहा था बहुत  काल  से  एक  पुण्य प्राण  भारी  II
रवि  पूजन  के  समय सामने जो  याचक आता  था,
मुँह  माँगा  वह  दान कर्ण से अनायास  पाता था II


 इंद्र विप्र  के वेश धारण  कर  कर्ण से कवच-कुंडल  मांगते हैं तो  सानंद   कर्ण  देते हुए कहता  है --

कर्ण  का आदर्श सिद्धांत था --

मेघ भले लौटे  उदास हो  किसी रोज  सागर से ,
याचक फिर सकते निराश पर ,नहीं  कर्ण  के घर  से I

देवराज !जीवन  में आगे और  कीर्ति क्या  लूँगा?
इससे बढ़कर दान अनुपम भला किसे , क्या दूँगा  ?
यह  लीजिये कर्ण  का जीवन और जीत  कुरूपति की ,
कनक -रचित निश्रेणीअनुपम  निज सुत उन्नति  की I
हेतु  पांडवों के भय  का,परिणाम महाभारत  का ,
अंतिम  मूल्य किसी  दानी जीवन  के दारुण व्रत  का I

कर्ण की दानवीरता देखकर  इंद्र बोले --
तेरे महा तेज के आगे  मलिन हुआ  जाता हूँ ,
कर्ण !सत्य ही आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र  पाता  हूँ I

दीख  रहा तू मुझे  ज्योति के उज्जवल शैल अचल -सा ,

कोटि -कोटि जन्मों  के संचित महापुण्य के फल -सा I

त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है ,

उनके पूंजी भूत रूप -सा तू मुझको  लगता  है I

 अंत में इंद्र ने कहा--

तू दानी ,मैं कुटिल प्रवंचक,तू पवित्र,मैं पापी ,


तू देकर भी सुखी और  मैं लेकर भी परितापी I

तू  पहुंचा है जहाँ  कर्ण ,देवत्व न जा सकता है ,

इस महान पद को  कोई मानव ही पा  सकता  है  I 

 इंद्र   ने छल किया; 
पहले कर्ण को दुःख हुआ ; उसके बाद मन प्रफुल्लित हुआ ;

क्योंकि बिना कवच कुंडल  के  लड़कर अर्जुन पर विजय  मिलें तो सामान्य योद्धा  की विजय मिलेगी  I 
आदर्श दानी  आदर्श वीर बनने की खुशी  में  हैं.

कर्ण की गुरु-भक्ति :-
    कर्ण  परशुराम  की गरु-भक्ति अनुपम हैं.कर्ण  की सेवा  से परशुराम  अत्यंत प्रश्न थे .गुरु  की निद्रा  न  छूटे,इसलिए  कर्ण जाँघों  में घुसे विष कीट कुरेदने  को सहकर  न हिला और पीड़ा को धैर्य  पूर्वक सहता  रहा I 
गुरु परशुराम  ने कर्ण की प्रशंसा  में  कहा --

"तुम  तो  स्वयं  दीप्तपौरुष  हो  कवच कुंडल धारी ,

उनके  रहते  तुम्हें  जीत  पायेगा कौन सुभट  भारी ?

अच्छा  ,लो  वर भी कि  विश्व में तुम महान     कहलाओगे ,
भारत इतिहास  कीर्ति  से और धवल  कर जाओगे I

आगे  परशुराम  कहते  हैं ---
अनायास गुण ,शील तुम्हारे मन में उगते आते  हैं ,
भीतर  किसी अश्रु -गंगा  में मुझे  बोर नहलाते  हैं I

भय  है ,तुम्हें  निराश देखकर छाती कहीं  न  फट जाए ,
फिरा न लूँ अभिशाप ,पिघलकर वाणी  नहीं उलट  जाएI


 कर्ण  में वीरता,स्वाभिमानी ,मित्रता निभाना ,दान-वीरता ,गुरु-भक्ति ,कृतज्ञता  आदि आदर्श गुण होने  पर भी उसमें अवगुण  भी थे I 

कर्ण  जिद्दी था; कुंती की गलती के लिए  नाराज  होना  तो गुण है ,फिर भी 

 कुंती और कृष्ण की सलाह न  मानना ,शर शय्या  पर लेटे  भीष्म पितामह 

 की  सलाह  न मानना  आदि  दुराग्रह  हैं . अश्विनीकुमार  सर्प की माँग भी कर्ण ने ठुकरा कर दिया I

भाग्यवाद  का समर्थन भी कर्ण  की दुर्बलता  है; वह अपनी बुद्धि बल  का 

प्रयोग  न  कर बार -बार  हार  जाता  है;पर अपने हारों  को विधि की 

विडम्बना  मानता है I

"किन्तु  भाग्य  है बली ,कौन किससे  पाता  है I

वह  लेखा नर  के ललाट  में ही देखा  जाता  है I
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किस्मत  भी चाहिए ,नहीं  केवल  ऊँची  अभिलाषा I
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सबको मिली स्नेह की छाया ,नयी नयी सुविधाएँ 
नियति  भेजती  रही  सदा पर ,मेरे हित  विपदाएँI

भाग्य की निंदा और स्तुति दोनों  प्रकट  करना कर्ण के अवगुण  है.

अर्जुन  की दुश्मनी और  दुर्योधन की मित्रता  का  निर्वाह  करने  के लिए सब स्वाहा  कर दिया I

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2. अर्जुन  का चरित्र चित्रण 

    रश्मिरथी  खंड -काव्य  में अर्जुन  नाम  का उल्लेख मात्र आरम्भ में मिलता हैI सप्तम  सर्ग में जब कर्ण युद्ध करने लगता है,तभी सामने  आता हैं I 

      प्रथम सर्ग में छात्रों के रण-कौशल का जनता के सामने प्रदर्शन  का आयोजन  था I उस प्रदर्शन में सबसे अधिक प्रशंसा का पात्र अर्जुन  था;तब कर्ण  प्रकट होकर अर्जुन को अपने साथ भिड़ने की चुनौती देता हैI कृपाचार्य  ने कर्ण की जाति-कुल पूछकर उसको अयोग्य कहता है.

  तब से अर्जुन और कर्ण की जान लेवा दुश्मनी  पनपने लगीI 

अर्जुन द्रोणाचार्य  का प्रिय शिष्य था; गुरु द्रोण अर्जुन-सम कोई वीर चमकना न चाहता  था ;इसीलिये एकलव्य का अंगूठे को गुरु दक्षिणा माँगा था i अब कर्ण को देखकर द्रोण चकित रहने लगे ; और उसे राहू मानने लगा I
  अर्जुन वीर था; पर द्रोण की आज्ञा मानकर कर्ण से न भिड़कर चुप रह जाता है. इससे उसकी गुरु-भक्ति  प्रकट होती है I 

  अर्जुन श्री कृष्ण का प्यारा था Iकृष्ण अर्जुन को बचाने  कुरुक्षेत्र  में 

कर्ण  के प्रति अन्याय मार्ग पर चलते  हैं i कर्ण के मानसिक परिवर्तन करना चाहते हैं; उन्हीं के संकेत से  कर्ण को कीट काटता है  और परशराम के पाप का पात्र  बनता है; उन्हीं के इशारे कुंती कर्ण से मिलती है  और पांडवों को जीवित बचाने  कदान माँग लेती है I कृष्ण के संकेत से इंद्र  ब्राह्मण बनकर 
कर्ण से कवच-कुंडल दान माँग लेता है I इतना ही नहीं,निःशस्त्र कर्ण पर धर्माधर्म  पर विचार न करते हुए अर्जुन को बान चलाने को उत्तेजित करता  हैI  थोड़े में कहें तो अर्जुन को बचाने कृष्ण ने साम-भेद -दंड -षड्यंत्र सब का 
प्रयोग  करता  है. 
अर्जुन  श्री कृष्ण का कठपुतला  है  I 

रश्मिरथी में दिनकर जी ने  कर्ण को नायक बनाया है ,अर्जुन तो गौण पात्र है.

गुरु-भक्त शिष्य ,भगवान श्री कृष्ण  का भक्त   अर्जुन  है . वह  गुरु -और

 भगवान के  संकेत  पर चलनेवाला  है  Iअर्जुन  रश्मिरथी काव्य  का  गौण पात्र है  I