Friday, November 8, 2024

सनातन वेद जगदीश्वर

 3601. सुख एक ही है। वह सदा आनंदप्रद है। वह स्थाई है। तैलधारा जैसे है। वह नित्य है। वह एकरस है ।वह निरुपाधिक सुख है। वह  सब सुखों से श्रेष्ठ सुख है। सब  सुखों में से बडा  सुख  वही  है। वही ब्रह्म है। वही सर्वव्यापी परमात्मा है।वही परम ज्ञानस्वरूप है। वही काम रहित यथार्थ प्रेम है। वही अनिर्वचनीय शांति स्वरूप है। वही  मैं  रूपी अखंडबोध है।वह अखंडबोध रूपी परमानंद स्वरूप के बदले जीव सदा दुख ही भोगते हैं। दुख भोगने के कारण यही है कि  वह स्वयं आत्मा है का ज्ञान न होना ही है। सर्वव्यापी बननेवाले अपने को पंचभूत के पिंजड़े बने मन,शरीर और प्राण सोचकर संकुचित शारीरिक अभिमान और अहंकार के साथ जीने से ही अहंकार के स्वभाव राग द्वेष, काम-क्रोध आदि से पूर्ण पवित्र आत्मा को छिपाकर दुखों का गुलाम बनकर नरक जीवन जीते हैं।


3602. नाटक के अभिनेता के अभिनय देखकर दर्शक खुश होते हैं। पर अभिनेताओं को केवल काल्पनिक आनंद होंगे। उनको यथार्थ आत्मा के स्वभाविक  स्थाई आनंद न होंगे। नृत्य कला में  रुचि होने पर भी,कला को ईश्वरीय मानने पर भी, मनोरंजन के लिए होने पर भी मानसिक और शारीरिक दुख होगा। उसका कौशल नृत्य क्षमता निर्देशक और दर्शकों को समझाने के विचार से ही होगा। तब उसका अहंकार लोगों को संतोष करने के लिए,नाम और धन कमाने के लिए लगातार अभिनय करने विवश कर देगा। उनको आत्मज्ञान सीखने के लिए ,आत्मबोध के साथ कर्म करने को समय न मिलेगा। अतः अंतरात्मा की स्वभाविक शांति और आनंद का अनुभव नहीं कर सकते। वैसे ही आत्मबोध रहित जीवन चलानेवालों की सब की स्थिति होती है। उनमें कुछ लोग संसार को ,कुछ लोग परिवार के लिए और कुछ लोग कुछ लोगों को संतुष्ट करने-कराने  मज़बूर होते हैं। पहाड के ढेर-सा धन कमाने पर भी उनको भोगने के लिए, उसको समय न रहेगा या मन न रहेगा। न तो शरीर साथ न देगा। वह नाचना,अभिनय करना और अपना धंधा छोडकर यथार्थ स्थिति जब समझने लगता है,तब पिछले समय की विषय वासनाएँ उसको न छोडेंगी। या अगला जन्म लेने का बीज बोकर मरेगा। कारण मनुष्य की आयु कम ही है।उनमें विवेकशीलल आदमी सत्य की खोज करने की कोशिश करेगा,पर वह सत्य को जान न सकेगा। जो मनुष्य आत्मा का महत्व जानता है,उसी को शांति और आनंद मिलेगा। दूसरों को स्वप्न में भी शांति नहीं मिलेगी। कला जो भी हो ,नृत्य हो, नाटक हो,संगीत हो वे संसार और शरीर के परम कारक बोध भगवान को संतुष्ट करने के लिए हो तो वास्तविक आनंद मिलेगा। अर्थात् संकल्प अवतार देव-देवी मंदिर के सामने  भक्तों के लिए भगवद् कीर्तन,भगवद्नाट्य, सत्य की और भक्ति की भावना जगानेवाले कलाकारों को ही आत्मा शांति और आनंद मिलेगा। आत्मबोध के बिना जड वस्तुओं के लिए जीवन व्यर्थ करनेवालों को नित्य दुख ही मिलेगा। केवल आत्मा मात्र आनंद देगा।

3603. आत्मबोध रहित,सत्य की खोज रहित, स्वयं अज्ञानी बनकर औरोंको भी अज्ञानी बनाने का कार्य ही लौकिक जीवन है। इसके विपरीत इनसे परिवर्तित जीवन जीना,अपने आपको पहचानना अर्थात् शरीर और संसार को विवेक से जानकर  शरीर और संसार मैं नहीं ,इस शरीर और संसार के परम कारण रूप अखंडबोध ही है।  इस बात को अपनी बुद्धि में दृढ बनाकर शारीरिक याद और सांसारिक याद  और शारीरिक और सांसारिक कर्म बंधनों  से  और दुख से विमोचन पाकर, शरीर और संसार को भूलकर, किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना एक मिनट भी अपने अखंड बोध स्थिति  से न हटकर रहना चाहिए ।जो व्यक्ति कमल के पत्ते और पानी के जैसे माया भरी संसार में निस्संग जीकर विदेह मुक्त बनता है,वही बोध स्वभाव के परमानंद स्थिति को पाकर वैसे ही स्थिर रहता है।


3604. अहंकार और अधर्म के प्रतिबिंब रामायण में रावण, महाभारत में दुर्योधन और  उनके अनुयायी आत्मा का महत्व न जानकर ,आत्मा का महत्व न जानकर दुखी होकर संसार से चल बसे। उनके जैसे न बनना चाहें तो रामायण में परमात्मा का प्रतिबिंब राम को और महाभारत में परमात्मा का प्रतिबिंब कृष्ण को प्रार्थना करके उनके शुभ-वचनों को स्वीकार करके व्यवहार मेंं लाये उनके साथ मिलकर उनके जैसे ही बदलनेवाले मनुष्य ही मनुष्य आत्मा के महत्व का एहसास करनेवाले होते हैं।उनको सारा संसार नफ़रत करने पर भी सदा आनंदवान होते हैं।
उनको जेल में डालने पर भी वे सर्व तंत्र स्वतंत्र ही रहेगा। उनसे प्यार न करने पर भी प्यार के स्वरूप ही रहेगा। वे कुछ भी न करने पर भी सब कुछ होनेवाले के जैसे ही  जीवन होता है।

3605. ब्रह्म शक्ति महामाया रूपी प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब स्त्री एक पुरुष की ओर कठोर शब्द कहते समय वह अपने यथार्थ स्वरूप परमार्थ स्वरूप तत्व समझाने के लिए  सहायिका सोचकर सब्रता से स्वयं को महसूस न करके
जो पुरुष स्त्री की जोर शोर सुनकर क्रोधित होकर अपने अहंकार को प्रकट करने
की कोशिश करता हैं, वह संसार और शरीर के बीच के परम कारण सत्य को पहचानने में असमर्थ हो जाता है। साथ ही माया  कर्म चक्र जेल में फँसकर तडपेगा। उससे मुक्त हो जाना है तो संसार के सभी स्त्रियों को पराशक्ति का अंश मानकर सत्य जानने के लिए उनको आराधना  करके याचना करनी चाहिए।
तभी महामाया अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध में अटल रहने की मदद करेगी। नहीं  तो महामाया आत्मबोध में रहने  कभी नहीं देगा। कोई भीअपने को  अग्नी ज्वाला स्त्री से बचा नहीं जा सकता। अर्थात  क्या वास्तव में ब्रह्मशक्ति माया ब्रह्म से अन्य एक स्थान से आया है?अन्य? नहीं।  अर्थात्  निश्चल ब्रह्म अपनी निश्चलनता और सर्वव्यापकत्व  के परिवर्तन के बिना अपनी अलौकिक शक्ति लेकर अर्थात्  अपने स्वभाविक योग माया को लेकर  अपने आपको ही स्वयं चलनशील रूप में बदलकर  एक रूपी अनेक रूप में परिवर्तन होने के साथ ही परमात्मा से अन्य कोई पराशक्ति नहीं है। एक ही ब्रह्म मात्र है। उसी को मैं रूपी अखंड बोध ही है। उस अखंडबोध रूपी अपने स्वभाविक परमानंद ही है।

3606.  इस संसार में  एक  साधारण आदमी  मैं, मेरा के अभिमान से एक जीवात्मा से सांसारिक व्यवहार करते समय अपने से बढकर एक शक्ति अर्थात् भगवान है की याद होगी। उसी समय संसार को अपने को आत्मआत्मज्ञान से
विवेक से देखते समय भगवान ही अपने अहमात्मा और स्वयं  रहकर इस शरीर को लेकर सभी कर्म करने को महसूस कर सकते हैं। अर्थात एक जीवात्मा मनुष्य में अकारण अपने आप कई संकल्प उमडकर आते हैं। उनको अपने आप नियंत्रण न करें तो उनके द्वारा होेनेवाले दुख के कारण स्वयं के सिवा दूसरी एक शक्ति कारण न बनेगी।कारण दूसरी कोई शक्ति को अपने में मिले बिना अस्तित्व नहीं है। जो स्थाई रूप में दुख निवृत्ति,आनंद और शांति स्थाई रूप में चाहते हैं,
उनको अपने में उमडकर आनेवाले संकल्प नाटकों को माया विलास सोचकर किसी भी मूल्य पर नियंत्रण करके या उसके लिए जीवन को त्याग करके अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को पुनर्जीवित करके स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए। तभी अपने स्वभाविक परमानंद को स्वयं भोगकर वैसे ही स्थिर रह सकते हैं।


3607.एक मनुष्य को जाति, मत,भाषा, विश्वास आदि मुख्य नहीं है।पीने के लिए पानी, साँस लेने के लिए हवा,भूख मिटाने के लिए खाना,ठहरने के लिए स्थान आदि ही प्रधान होते हैं। वे सब के सब मिलने पर भी उनमें अहमात्मा के स्वभाविक आनंद,स्वतंत्र,शांति की प्रार्थना करता है और खोज करता रहता है।वैसे ही सभी जीव खोजते रहते हैं। उनमें जिस जीव को आत्मज्ञान सीखने का ज्ञान मिलता है, वही सत्य का महसूस कर सकता है। अर्थात् “मैं” के केंद्र से ही सब कुछ चलता है। कारण मैं रूपी अखंड बोध केंद्र नहीं तो संसार और शरीर नहीं होते। अपनी शक्ति माया मन अपने हित के अनुसार  संकल्पों को बढाकर स्थूल सूक्ष्म शरीरों को,उसके आवश्यक अंतःकरणों को बनाकर ही अपने बनाये जग में अपने द्वारा सृष्टित शरीर की सहायता से व्यवहार करता रहता है।उनसे बाहर आना न आना जीव के अपने वश में ही है।जीव का अपना अपराध और दोष ही है। अतः अपनी कमियों के लिए दूसरों पर,भगवान पर दोषारोपण करना सही नहीं होता। इस बात को एहसास करना चाहिए कि जीवों के अपने दुख और नरक वेदना भोगने के मूलकारण स्वयं ही है। अतः विवेक पूर्वक पता लगाना चाहिए कि हमारे सभी सोच-विचार के परम कारण शक्ति कौन-सी शक्ति है,वह क्या है? उस परम कारण का पता लगाना ही सभी समस्याओं का प्रायश्चित्त होगा।कयोंकि वह परम कारण ही सब कुछ होता है। वही अखंडबोध है। उसका स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति होते हैं,जो इनका एहसास करता है,वही भाग्यवान होता है, जो नहीं समझता,वह दुर्भाग्यवान होता है।

3608. कमल के जन्म के मार्ग की खोज करते समय पता लगता है कि उसको स्थिर खडा रहने  के लिए कीचड अनिवार्य होता है। जो कीचड से स्नेह नहीं करते,वे उसको तोडकर उसकी सुंदरता के आनंद को अनुभव नहीं कर सकते। अर्थात्  कमल सूखते समय वह फिर  कीचड में बदल जाता है। कीचड ही कमल बनता है। बीज और पेड का आधार  मिट्टी ही है।  बीज और पेड दोनों को मिट्टी में डालने से  दोनों मिट्टी बन जाते हैं। उसी मिट्टी में ही पेड उगते हैं।पेड से ही बीज बनते हैं। स्वप्न में आम के पेड से आम तोडकर खाते समय वह सत्य ही लगा।
उस स्वप्न के आम किस पेड के हैं के सवाल यही कहेगा कि वह तो केवल स्वप्न है। वैसे ही इस जागृत अवस्था में जो कुछ दीख पडते हैं,वे सब एक स्वप्न है और कोई युक्ति नहीं है। वैसे ही एक महान की मित्रता के लिए उस महान के दोस्तों से प्यार करना चाहिए।वैसे ही गुरुओं की मित्रता के लिए उनके शिष्यों से भी प्यार करना चाहिए। अर्थात्  ज्ञान-अज्ञान में  जिसमें समदर्शन है,उसी को ही शांति और आनंद स्थाई रूप में मिलेगा। अर्थात दिन में अंधकार को टालनेवाले रात में सोने के लिए प्रकाश को टालते हैं। अर्थात् एक एक के लिए पूरक है। वैसे ही असीमित अखंडबोध भगवान मात्र है।यह कहने के लिए सीमित एक शरीर की आवश्यक्ता है। बोध अखंड है,वैसे ही माया शक्ति भी अखंड है। रेगिस्तान में मृगमरीचिका होती है.  स्फटिक शिला दबाई जमीन पर पानी का झलक होगा। इसलिए ब्रह्म शक्ति रूपी माया का दृश्य ब्रह्म का स्वभाव ही रहेगा। ब्रह्म रूप में दृश्य नहीं है। दृश्य रूप में ब्रह्म नहीं है। सदा एक ही विद्यमान है। जो इस रहस्य को जानता है, वही ज्ञानी है। उसको दुख कभी नहीं होगा। अर्थात बोध में ही प्रपंच दृश्य होता है। वह बोध में ही स्थिर रहता है। उसका मिट जाना भी बोध में ही है। लेकिन बोध नहीं है, कहनेवाला भी बोध ही है। बोध मात्र है।

3609. भारत में वाल्मीकि लिखित रामायण कहानी में ,परमात्मा के  प्रतीक श्री राम की पत्नी पराशक्ति का प्रतिबिंब सीता,  मन को मोह के प्रतिबिंब स्वर्ण हिरन पर हुई इच्छा के कारण, उनको जीवन भर दुख हुआ। इसलिए लालची मनुष्य को होनेवाले महा दुख को ही रामायण में वाल्मीकि बताते हैं। अर्थात सीता राम के साथ रहते समय परमानंद स्वरूप में था। सीता अपनी इच्छा के कारण ही दुखी रही। वैसे ही मन में जब इच्छा होती है,तब दुख भी आ जाता है। आत्मा रूपी  श्रीराम को भूल जाने से ही सभी प्रकार के दुख आ जाते हैं।अतः जो कोई दुख से विमोचन पाना चाहते हैं, उसका मन आत्मा रूपी राम से मिलकर एक क्षण भी बिना हटे रहना चाहिए। तभी परमानंद को भोगकर परमानंद स्वरूपी हो सकते हैं।

3610. जो  अविवेकी सबके परम कारण बने आत्मा रूपी अपने में  अपने मन को  प्रतिष्ठा नहीं कर सकते ,वे ही संकल्प-विकल्प बंधन के जेल से मुक्त न होकर तडपते रहते हैं। लेकिन रूप की सच्चाई जानकर जिन के मन में इच्छा नहीं है,उनका मन ही आत्मा से जुडकर आत्मा बन सकता है। उनके कालातीत ही शांति नामक स्वर्ग है। रूप सच्चाई को कैसे एहसास कर सकते हैं? 10 किलो स्वर्ण लेकर एक आभूषण दूकानदार दस हज़ार आभूषण बनाता है। चंद साल के बाद उन दस हजार स्वर्ण आभूषणों को पुनः सोने का डला बनाता है। आभूषण केवल नाम मात्र है। स्वर्ण को भूलनेवाले ही चूडियाँ, अंगूठी,हार कहते हैं। सचमुच हार, अंगूठी, स्वर्ण है।दूसरी कोई वस्तु कहीं नहीं है। स्वर्ण मात्र है।इस प्रकार ही निराकार मैं,रूपी अखंडबोध प्रपंच मे बदलने पर भी दूसरी एक वस्तु प्रपंच में नहीं है। पुनः प्रपंच अखंड  बोध में बदलते समय बोध मात्र ही है।स्वर्ण नहीं तो आभूषण नहीं है। वैसे ही बोध नहीं तो प्रपंच को देख नहीं सकते।

3611. जिन्होंने  आत्मज्ञान में पूर्णत्व पाया है,वे ही यथार्थ गुरु होते हैं। गुरु को ही उपदेश देने की योग्यता होती है। सत्यवान को और सत्य के चाहकों को ही गुरु उपदेश देंगे।रामायण में रावण,महाभारत में दुर्योधन जैसे अहंकारियों को गुरु ज्ञान का उपदेश न देंगे। उन पर दया करके उनको उपदेश देने पर भी वे उपदेश को स्वीकार न करेंगे,उपदेश देनेवालों को अपमानित करेंगे।
3612. झोंपडी से लेकर बंगला तक पद जो भी हो पद पर रहनेवालों के नीचे जो हैं,उनकी सहायता के बिना पद पर रहनेवले चैन से रह नहीं सकते। वैसे ही एक भगवान की सृष्टि में मिलकर अनेक में बदलते समय अपने योग माया के द्वारा जीवों में प्राण भय उत्पन्न करते हैं। मन में समता न होने से ही भय होता है। अनेकता में सम दशा न होगी। मन समदशा न होने पर अनेकता न रहेगी।यथार्थ पद का मतलब है मन में सम स्थिति प्राप्त करना। इसी कारण से देवलोक,भू लोक, परिवार,समाज और राज्य में रहनेवाले समता लाने में अप्रत्यक्ष रूप में अस्वीकार करते हैं। जो पद चाहते हैं, वे सम दशा पर रह नहीं सकते। ईश्वरीय शक्ति माया को लेकर भगवान अपनी लीला करने के लिए निश्चल परमात्मा रूपी अपने अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अज्ञान रूपी अंधकार को ढककर एकाकार को अनेकाकार बनाकर अनेकता को बना बनाकर खेलते रहते हैं।वह माया भरी क्रीडा ही यह ब्रह्मांड होता है। सत्य में मैं रूपी अखंडबोध ही नित्य सत्यपरमानंद स्वभाव से स्थिर खडा रहता है।

3613.विवेक और क्षमता रहनेवाले को बकरी को गधा बनाने के जैसे कायर न बनाकर अराजकत्व चाहनेवाले आत्मबोध रहित आत्मज्ञान रहित अविवेकी राजा  राज्य का शासन नहीं कर सकता। वे सोच रहे हैं कि सर्वांतर्यामी परमात्माा सूर्य को अपनी उँगलियों  से छिपा सकते हैं। इसीलिए उनको बहुत बडा  पतन होता है। संसार और शरीर के परम कारण अखंडबोध ही है। जो  राजा इस ज्ञान को समझकर  दृढ बनाकर शासन करता है, उनके शासन में लोग शांति और संतुष्ट रहेंगे। कारण सभी प्रजाओं में जो आत्मा अर्थात् बोध स्वयं बने अखंडबोध के भाग ही समझने से राजा अपने जैसे प्रजाओं से भी प्यार करेंगे।

3614.  एक विवाह करनेवाले युवक को समझना चाहिए कि जो पत्नी आनेवाली है वह उसके सभी संकल्पों के अनुकरण नहीं करेंगी। कारण पत्नी कहनेवाली एक मानव मन है। मन प्रकृति है।प्रकृति को स्थिरता नहीं रहेगी। वह तो परिवर्तन शील होती है। वह संदेह का आकार है। उसके कारण  वह अज्ञान का अंधकार  होती है। आत्मा का स्वभाव प्रकृति के विपरीत होता है। इस आत्मा और प्रकृति से बने तत्व ही अर्द्धनारीश्वर का तत्व है।वह ईश्वरीय शक्ति ही पत्नी के रूप में आती है। वही शिवशक्ति है।अर्थात् प्रकृति पुरुष संगम ही यह प्रपंच और उसमंअंतर्यामी परमात्मा है। अर्थात् सभी जीवों में चलनेवाला प्रणय अर्थात् प्यार। जब इसका एहसास करते हैं ,तभी पारिवारिक जीवन आनंद होगा।

3615.  जो अपने शरीर और संसार को सत्य मानते हैं, वे  शास्त्र सत्य को न जानते हैं, वे अज्ञानी होते हैं। उन अज्ञानियों में ही जाति,मत,वर्ण,आदि भेद  होते हैं। उन भेदों के  कारण  ही राग,द्वेष, काम,क्रोध, सुख-दुख आदि होते हैं। अर्थात्  शास्त्र सत्य के ज्ञाता आत्मबोध के एक व्यक्ति उसकेे शांतिपूर्ण मन को इस अज्ञान विषयों में ले जाकर अशांति का पात्र न बनेंगे। इस संसार में स्त्री-पुरुष होते हैं। उनमें जाति-कुल आदि पर ध्यान न देखकर कुछ लोग विवाह कर लेते हैं।काल,देश,जाति,कुल,संप्रदाय न देखकर प्रेम भी कर लेते हैं। इसके कारण है कि उनमें जो  आत्मा है,वह एक ही है। इसीलिए दो देखनेवाले मन में एक होने की प्रेरणा होती है।अर्थात्  उनके शरीर प्रकृतीश्वरीरूपी महामाया शक्ति होते हैं।
आत्मा शिव होता है।अर्थात् प्रेम की उच्चतम अवस्था में दोनों रूप विस्मरण में एक ही स्थिति में आत्मा सर्वव्यापी बनकर सर्वत्र विद्यमान हो जाने से दूसरा एक जड-कर्म चलन रूप हो ही नहीं सकता। कारण चलन बनी माया में भी आत्मा भरी रहने से अखंड परमात्म बोध में दूसरी एक शक्ति अर्थात् चलन कभी नहीं होगा। वही ब्रह्म स्थिति होती है। अर्थात् जिसमें ब्रह्म बोध होता है,उनको ही मैं ब्रह्म हूँ का ज्ञान दृढ हो जाता है,वे ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करते हैं। जिनमें  द्वित्व है,वे दुख से बाहर नहीं आ सकते। यही परम रूप शास्त्र सत्य है।


3616. इस प्रपंच भर में निराकार ईश्वर दीवार रहित चित्र ही है। इस प्रपंच का ईश्वर सुंदर है। इसलिए ईश्वर को देखनेवाले ईश्वर की सुंदरता को देख सकते हैं। लेकिन जिसको सुंदरता पर मोह है, वे ईश्वर को देख नहीं सकते।कुछ मंदिरों में बडे पत्थर पर बने देव-देवियों को ही आराधना करते हैं। भक्त पत्थर को भूलकर ही देव-देवी से प्रार्थना करते हैं। लेकिन वहाँ पत्थर मात्र है। देव-देवी उनके संकल्प में होते हैं। वैसे ही स्वयं बनेे अखंड बोध में उमडकर आये रूप ही यह प्रपंच होता है। प्रपंच को देखनेवालेे बोध को भूल जाते हैं।. बोध नहीं तो प्रपंच नहीं है। पत्थर नहीं तो देव-देवी संकल्प नहीं होते। इसलिए बोध मात्र सत्य स्वरूप होता है। प्रपंच संकल्प है। संकल्प माया है। माया सृष्टित सब के सब मिट जाते हैं। इसलिए माया द्वारा सृष्टित वस्तुओं को सत्य माननेवाले रूप नाश के कारण दुख का पात्र बनते हैं। संकल्प के कारण बने मन को बोध में विलीन करके दृढ बनाते समय चलन रूपी मन  सर्वव्यापी निश्चल बोध के सामने अस्थिर हो जाता है। साथ ही संकल्प का नाश होता है। संकल्प के नाश होते ही सभी प्रकार के दुख नाश हो जाते हैं। अर्थात दृश्यों के मिटते ही दृष्टा मात्र सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है। जो कोई प्रपंच दृश्यों में बोध स्वरूप आत्मा को अपने में भरकर देखता है,वह ब्रह्म के बिना दूसरी एक वस्तु को कहीं नहीं देख सकता। अर्थात बोधाभिन्न जगत। अर्थात ब्रहम मात्र है। अन्य दृष्टित अमीबा से ब्रह्मा तक के नाम रूप भगवान के सिवा और कोई नहीं हो सकता। वह सत्य है।वैसे हर एक जीव अपने को भगवान की अनुभूति होने तक  जीव को दुखों से विमोचन न होगा। कारण  जब तक रेगिस्तान होता है, तब तक मृगमरीचिका दीख ही पडेगी। वैसे। ही ब्रहम नित्य होने से प्रपंच दृश्य भी नित्य होगा ही। कारण ब्रह्म रूप के बिना दूसरा एक किसी भीी काल में दूसरी एक वस्तु बना ही नहीं है।

3617. अपने शरीर और अपने अंग,प्रत्यंग,उपांगों को अपने से अन्य नहीं सोचते। वैसे ही स्वयं बने अखंड बोध में उमडकर देखनेवाले सभी प्रपंच रूप बोध रहित दूसरा बन नहीं सकता। अर्थात बोध मात्र सत्य रूप है।बोध को भूलकर बोध में उमडकर दीखनेवाले शरीर में अभिमान होकर बने अहंकार ही शरीर बना है। वैसे लोगों को ही यह संसार अन्य लगेगा। अन्य चिंतन से बननेवाली भेदबुद्धि,राग-द्वेष, काम क्रोध उनके द्वारा सभी प्रकार के दुख होते हैं। कारण अहंकार नहीं जानता कि अहंकार बोध से आश्रित होकर ही स्थिर खडा है। इसलिए जो कोई अहंकार को मिथ्या,मैं अखंड बोध है का एहसास करता है,केवल वही परमानंद को अनुभव करके वैसा ही बन सकता है।

3618.  इस बात को सोचना सिवा मूर्खता के और कुछ नहीं है कि एक मनुष्य शरीर में होनेवाले सभी चलन क्रियाएँ मनुष्य के अनजान में ही जो चलाता है, उसको इस जीव के लिए जो कुछ आवश्यकता है उन्हें  वह नहीं जानता। हर एक जीव में भगवान रहकर ही इस शरीर को उपयोग करके सभी कार्य कर रहे हैं, पर अहंकारी मानव भगवान को भूलकर इस संसार को अपने अधीन लाने को सोच रहा है। लेकिन आज तक कोई भी राजनीतिज्ञ  संसार को  सीधा बनाने को सोचता नहीं है।महान भी सोचकर व्यवहार नही्ं करते। कारण यह संसार नहीं है।इसी कारण से इस संसार को सीधा नहीं कर सकते। इसीको एक हद तक वैज्ञानिक भी मानते हैं। उदाहरण स्वरूप एक स्कूल के विज्ञान के अध्यापक एक मेज़ को देखकर यही सिखाते हैं कि इसमें प्रोटान और एलक्ट्रान है। पर यह नहीं सिखाते है। कि इनका उत्पत्ती स्थान मैं रूपी अखंडबोध है। वेदांत ही यह सिखाता है।

3619.जो अपने संसार को अपने से अन्य रूप में देखने के जैसे अपने शरीर को,मन को बुद्धि को,प्राण को अपने से अन्य रूप में देख सकता है, वही मैं शरीर से बना है के विचार से यह महसूस कर सकता है कि संसार और शरीर का परम कारण बने अखंडबोध स्वयं ही है। उस स्थिति को जब पाते हैं, तभी  एहसास होगा  कि  मैं रूपी अखंड बोध जन्म मरण रहित स्वयंभू है, वह अपरिवर्तनशील है, वह स्वयं प्रकाश रूप है, वह अनंत है, वह अनादि है।तभी यह शरीर और संसार मैं बने अखंडबोध में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले एक इंद्रजाल मात्र है। वह बोध का एक भ्रम है, उस भ्रम में भी  मैं रूपी अखंड बोध भरे रहने से स्वयं का अखंडबोध मात्र ही स्थिर रहता है। इस बात को एहसास करके अपने स्वभाविक परमानंद को भोगकर वैसा ही रह सकता है।

3620. पंचपांडव  रूपी पंचेंद्रियों को दुर्योधन रूपी अहंकार नियंत्रित घमंडी दुःशासन के द्वारा पांचाली के मन को कलंकित करते समय पांचाली वस्त्र तजकर दोनाें हाथों को जोडकर ऊपर उठाकर परमात्मा कृष्ण से अभय की माँग की है। जब मन परमात्मा में ही लग जाता है, तभी सभी दुखों से विमोचन मिलेगा। तब तक जीव का मन चित्त विकार काम-क्रोधका गुलाम बनकर अहंकार के हाथ में फँसकर दुखी होगा।

3621. साधारण मनुष्य जो अपनाा है,उससे संतुष्ट न होकर अपना जो नहीं है,
उन सबको अपनाने की इच्छा रखताा है,यह मानव स्वभाव है। इसी कारण से पति और पत्नी दोनों शादी के बाद एक दूसरे को न चाहकर दूसरे स्थान में सुख के लिए भटकते हैं। अर्थात् जो कुछ वे ढूँढते हैं, वे सब आत्मा में अर्थात् अखंडबोध में है। यह आत्मज्ञान न होने से ही अभिलाषाएँ होती है। इसलिए शरीर और संसार को विवेक से जान-समझकर अनित्य विवेक द्वारा शरीर अनित्य है, आत्मा सत्य है के ज्ञान के होते ही असत्यय शरीर पर इच्छा न रखकर आत्मा से प्यार होगा। वैसे आत्मा से प्यार होने के बाद ही आत्मा का स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभवव करके आनंद होकर वैसा ही बन सकते हैं।

3622.एक कूडेदान में एक हीरे की अंगूठी है तो वह कूडों के बीच चमकेगी। उसकी प्रकाश की किरणें देखकर जो उसे लेना चाहता है,उसको पहले कूडों को उठाकर हटाना है। जो कूडों को निकाल नहीं सकता, वह अंगूठी प्राप्त नहीं कर सकता। वैसे ही अपना शरीर एक कूडेदान है। उसमें से ही आत्मा रूपी हीरा पंचेंद्रियों में मिलकर चमक रही है। जो कोई आत्मा रूपी हीरा पाना चाहता है तब उसको आत्मा को छिपानेवाले मन,बुद्धि प्राण और शरीर के कूडोंं को पहले मिटाना चाहिए।  मन के कूडे को कैसे निकालना चाहिए? यह चिंतन करना चाहिए कि मैं मन,बुद्धि, प्राण नहीं है,मैं इन सब के साक्षी स्वरूप आत्मा हूँ। इन ज्ञान की भावनाओं को मन में दृढ बना लेना चाहिए कि  मन में,बुद्धि में प्राण में शरीर में रहनेवाली सर्वव्यापी आत्मा ही भरी रहती है। वैसे आत्मा सकल चराचरों में भरी रहती है कि भावना बढाते समय नाम रूप खुद छिप जाएगा।
साथ ही स्वयं आत्मा बने  अखंड बोध का ज्ञान दृढ होगा। साथ ही आत्मा के परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं। वैसा ही रह सकते है। अर्थात् अपनी शक्ति माया अखंडबोध है। अपने को अकारण बंद करने से ही स्वरूप विस्मृति होती है। उस स्वरूप विस्मृति से स्वरूप स्मृति आने के मार्गों को ही सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म से उमडकर आये वेद और उपनिषद बताते हैं। ब्रह्म ही ऋषि बनकर ढंग से लिखकर रखा है।

3623. जो कोई इस जन्म में मनुष्य आत्मा को मुख्यत्व देकर जिंदगी को अर्पण करता है, वह अनेक जन्मों में माया के बंधन में जीवन बिताकर आत्म प्यास के साथ चल बसा होगा। वही स्वयं गुरु हो सकता है। एक आत्म उपासक को अमीबा से ब्रह्मा तक किसी भी रूप को बुद्धि में रखना नहीं चाहिए। जिस रूप को सोचकर जीव मरताा है,उसी रूप लोक को ही जीव जाएगा। इसलिए देव-देवी के दर्शन देने पर भी ,सद्गुरु  के लाभ होने पर भी शरीर रूप में मन लगाना नहीं चाहिए। कारण शरीर रूप सब जड कर्म चलन माया ही है। इसलिए रूप रहित अखंडबोध ही स्वयं है को दृढ  बनाकर सब में अपने को ही दर्शन करके बोध स्वरूप आत्मा का स्वभाव परमानंद  और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करना चाहिए। वैसे स्थितप्रज्ञ और ब्रह्म दर्शन भी मनुष्य की अज्ञानता मिटाकर ज्ञानमार्ग को स्पष्ट करेगा। लेकिन अपने आप  को ही एहसास करके बोध से ज्ञान की दृृढताा होने पर ही स्वयं को साक्षात्कार कर सकते हैं। गुरु के मार्ग दर्शन मिलने पर भी अपने आपको महसूस करना चाहिए। अपनी रक्षा खुद करनी चाहिए। वैसे करने से सत्य से स्वयं न हटकर चित्त खुद मिट जाएगा।मैं रूपी सत्य मात्र नित्ययानंद के रूप में  स्थिर खडा रहेगा।

3624.रामाययण, महाभारत,भागवत्, वेद आदि के रचयिता कौन है? कब लिखा है? कहाँ लिखा है? इनकी खोज करके प्रपंच के मूल की खोज में जाना निरर्थक होता है। कारण प्रपंच तीन कालों में नहीं रहता।लेकिन ईश्वरीय शक्ति माया के द्वारा सृष्टि, स्थिति और संहार चलते रहते हैं। वैसे ही वेद सृष्टि के आरंभ में ही रचित है। क्योंकि ब्रह्म ही वेद रूप में,अक्षर रूप में आते हैं। अर्थात् वह ब्रह्म ही माया शरीर को स्वीकार करके ऋषियों के रूप में नियमानुसार वेद और उपनिषदों को बनाया है। वह अज्ञानी जीवों को ज्ञानी बनाने के लिए ही है। लेकिन एक रूप अनेक रूप में दीख पडना निश्चल ब्रह्म अपनी स्थिति से परिवर्तन न होकर स्वयं ही चलन शक्ति के रूप में रहकर बनाये गंधर्व नगर ही यह प्रपंच, प्रपंच की भूमि और सभी ग्रह, जीव और उनके जीवन होते हैं।उदाहरण स्वरूप रेगिस्तान की मृगमरीचिका देखकर उसको पानी समझकर हिरन दौडते रहते हैं। दौड-दौडकर मर जाते हैं। हिरन का प्यास कभी बुझा नहीं है। वैसे सत्य के अज्ञात, आत्मबोध रहित अविवेक मनुष्य अधिक होते हैं। जो है,उसका नाश नहीं होता। जो नाश होता है,उसका अस्तित्व नहीं होता। जो है, उसको बनने की आवश्यक्ता नहीं है।
ब्रह्म स्वयंभू है। इसलिए उसका नाश नहीं होता। लेकिन ब्रह्म में यह प्रपंच दृश्य बनाया -सा लगता है। अतः वह नश्वर होता है। वास्तव में वह तीनों कालों में नहीं रहता। लेकिन है सा लगता है। वह बोध का भ्रम है। अपनी शक्ति माया ही इसका कारण है। ब्रह्म एक है,अनेक नहीं है।कारण ब्रह्म अपरिवर्तनशील है। जो सोया है,वह अपने स्थान से हटता नहीं है। लेकिन वह स्वप्नन में एक ब्रहमांड को बनाकर उसमें व्यवहार करके सुख-दुखों का अनुभव करके नींद के टूटते ही कुछ नहीं रहता। उसके स्वप्न लोक में भी वह नहीं है। लेकिन यथार्थ-सा अनुभव होता है। वैसे ही ब्रह्म न हिलकर चलायमान प्रपंच की सृष्टि करके अपनी लीला रचता है। अर्थात् यह प्रपंच एक स्वप्न ही है। जो इस शास्त्र सत्य को मिथ्या सोचता है,वह दुखी रहेगा। जो सत्य जानता है, उसको आनंद मिलेगा।इसलिए मैं यह शरीर और संसार नहीं है,इनके परम कारण मैं रूपी अखंडबोध ही है। इस ज्ञान को  जो भी मूल्य हो देकर खोजकर जान-समझकर बुद्धि में दृढ बनाकर मैं रूपी अखंड बोध के स्वभाविक परमानंद को अनिर्वचनीय शांति को अनुभव करके वैसा ही बनना चाहिए।

3625.सभी यज्ञों से ब्रह्म यज्ञ ही बढिया है। ब्रह्म यज्ञ के लिए धन,वस्तु और मनुष्य की ज़रूरत नहीं है। उसके लिए स्थान की भी ज़रूरत नहीं है। जो ब्रह्म यज्ञ करना चाहता है, उनको पहले इस शरीर और संसार को जानना समझना चाहिए। तब सत्य और असत्य का पहचान होगा। नश्वर और अनश्वर का पता चलेगा। उनमें शरीर और संसार नश्वर होता है। बोध ही अनश्वर है, जो नश्वर का कारण है। मैं  का अनुभव बोध नहीं  है तो यह शरीर और संसार नहीं रहेगा। शरीर और संसार न होने पर भी मैं रूपी बोध सत्व अनश्वर होकर स्थिर रहता है। इस बोध के लिए अमुक स्थान या काल नहीं है। वह सर्वव्यापी सर्वकाल स्थित मैं रूपी अनुभव ही है। बोध सर्वव्यापी होने से दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। प्रपंच ही दूसरी वस्तु होने के जैसा लगता है। यह परस्पर विरोध है। क्योंकि प्रकाश से अंधकार और अंधकार से प्रकाश नहीं हो सकता। लेकिन अंधकार होने सा लगता है।प्रकाश की पूर्णता में अंधकार मिट जाता है। वैसे ही अखंडबोध में प्रपंच रूप अस्थिर हो जाते हैं। रूपप जो भी हो, उसमें बोध ही भरा रहता है। बोध को मात्र देखनेवाली आँखों में प्रपंच नहीं होगा। जो जीव स्वयं को अखंड बोध जानकर ,दृश्य जगत में स्वयं बने बोध को मात्र अर्थात् ब्रह्म को मात्र देखता है, वह दर्शन तैलधारा जैसे बनना बनाना ही ब्रह्म यज्ञ है। वैसे ब्रह्म यज्ञ करनेवाला ब्रह्म ही है।

Saturday, August 24, 2024

मानव का असली आनंद

 नमस्ते वणक्कम्। साहित्य बोध महाराष्ट्र इकाई को।

23-8-24

विषय ---समर्पण।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार स्वतंत्र शैली।

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समर्पण  मेरा  काव्यग्रंथ 

  मेरे गुरुवर के चरणकमलों पर।

 यहां फूल माला ईश्वर को समर्पण।

  वीरों के तन-मन-धन,

    देश के लिए समर्पण।

  पहली कमाई माता के

 कर कमल में समर्पण।

प्रेमिका के लिए समर्पण।

 मेरी कमाई पत्नी पुत्रों के लिए।

समर्पण! समर्पण। समर्पण।।


 माता पिता के समर्पण में 

 संतानों का उत्थान।

  एक दूसरों के समर्पण रहित 

 जीना  है कैसे जग में।

 मातृभाषा  के लिए,

 मातृभूमि केलिए,

 अपनी जाति के लिए।

 अपने धर्म के लिए।

 अपने समाज के लिए 

 समर्पित जीवन ही सानंद जीवन।।

 आज़ादी लडाई‌ के  त्यागियों  के लिए,

 श्रद्धांजलि समर्पण।

 दिव्य शक्ति प्राप्त करने

 तन मन धन आत्म समर्पण।

 एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Friday, August 23, 2024

वाच्य बदलना , चाहिए का प्रयोग

 [21/08, 5:07 pm] sanantha.50@gmail.com: वाच्य

 राष्ट्र भाषा 


 माताजी खाना बनाती है। (सामान्य वर्तमान काल)

 माताजी से खाना बनाया जाता है।

 बनाएगी !( भविष्यतकाल)

माताजी से खाना बनाया जाएगा।

 बनाया।( भूतकाल)

 माताजी से खाना बनाया गया।

  In the above voice change 

 We are converting verb in to past tense.

 In the  above sentences.

 According to tense 

 जाता है, जाएगा गया।

 Object  खाना पुल्लिंग।

  Instead of  खाना  if object is रोटी।

 Verb change like

 रोटी बनाई जाती है।

रोटी बनाई जाएगी।


 रोटी बनाई गई।

 -----++----+++++

 वह फल खाता है।

 फल  पुल्लिंग।

 वह +से 

खा भूतकाल खाया ।

 उससे फल खाया जाता है।

 उससे फल खाया जाएगा।

 उससे फल खाया गया।

   --------------७

अभ्यास के लिए 

सीता पत्र लिखती हैं।

राम चिट्ठी लिखता है।



 पत्र पुल्लिंग 

चिट्ठी स्त्री लिंग 

 लिखता है। लिखेगा। लिखा।

 अब वाच्य बदलिए।

[22/08, 10:33 pm] sanantha.50@gmail.com: चाहिए का प्रयोग।


 कर्ता +को कर्म के लिंग वचन के अनुसार क्रियार्थक संज्ञा  चाहिए।

 Subject +को , 

according to object's gender and number verbal noun +चाहिए।

 हमें हिंदी पढ़नी चाहिए।

 आपको रुपये देने चाहिए।

 हमको रोटियाँ खानी चाहिए।

उसको  फल बेचने चाहिए।

    उनको कहानियाँ लिखनी चाहिए।

     

 अभ्यास। शुद्ध कीजिए।

 वे दया खाना चाहिए। (दवा स्त्री लिंग)

 नेता को  सेव करना चाहिए।

 सरकार  महँगाई  कम करती है।

 Use of चाहिए।

शुद्ध कीजिए

 शुद्ध कीजिए।

 ने नियम के अनुसार 

 सकर्मक क्रिया के वाक्यों में भूतकाल में ने का प्रयोग करना पड़ता है।

 गलत वाक्यों को शूद्र करने के प्रश्न किया जाता है।

  ने नियम  निम्न  सकर्मक क्रिया   के लिए लागू न होगा।

   लाल, बोल,  भूल, लग,  सक चुक,  मिल  ।


Transitive verb "ने" rule exceptions for ला, बोल, भूल, लग, सक ,चुक, मिल।


१. दोस्त ने मिठाई लायी। गलत

        दोस्त मिठाई लाया।  सही 

        कमला मिठाई लायी।सही 

        पिताजी मिठाई लाये। सही।

 2.राजाजी ने बोला। गलत।

     राजाजी बोले ! सही।

     विजया बोली।

    प्रेम बोला।

   प्रेमा बोली।

--------

3.राम ने कविता भूली! Wrong.

 राम कविता भूला । Correct

4.  सीता ने गाने लगी। गलत।

      सीता गाने लगी।

    5.मोर ने नाचने लगा । गलत

       मोर नाचने लगा। सही।

6.    उन्होंने पढ़ सका।  गलत 

        वे पढ़ सके।

        सीता बोल सकी।

         वह सीख सकता।

 7.कमला ने लिख चुका। गलत 

    कमला लिख चुकी।

     विजय दे चुका।

 विजया बोली चुकी।

 8.राम ने सीता को मिला । गलत। Two mistakes.

 One ने another मिल।

  தமிழ் போன்று சிந்தையை என்று வராது. 

 मिल வினை முன் से வரும்.

 से मिल।

 राम सीता से मिला।

 सीता राम से मिली।

  अध्यापक मंत्री से मिले।

  ला, बोल , भूल 

 लग सक चुक  मिल।

याद रखिए।

 समझ   धातु दोनों अकर्मक सकर्मक रूप में सही है।

 मैं  समझा। मैंने समझा।

 वे  बात समझे।

 उन्होंने बात समझी।

 एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Wednesday, July 10, 2024

Hindi

 தமிழ் இலக்கியம்

 நிறைந்த செம்மொழி.

 மிகவும் பழமையான மொழி.

உலகின் தொன்மையான மொழி.


 ஹிந்தி வரலாறு அறிந்து கொள்ளுங்கள். 

 தமிழ் இளைஞர்களே!


       ஹிந்தி கடி போலி என்ற பெயரில் 

 இரண்டரை மக்கள் டில்லி மீரட் ஆக்ரா பகுதிகளில் பேசப் பட்ட  மொழி.


 அது ஹிந்தி யாக வளர்ச்சி பெறத் தொடங்கியது 1900 கி.பி.

 அதாவது 124ஆண்டுகளான மொழி.

 இன்று உலகில் மூன்றாவது 

பெரிய மொழி.

 தமிழகத்தில் 15000ஹிந்தி பரப்புனர்கள்.

 இரண்டு லட்சம் மாணவர்கள்.

 தமிழக அரசு ஆதரவின்றி படித்து வருகின்றனர்.

 பொது மக்கள் ஹிந்தியை ஆதரித்து பேசியும் வருகின்றனர். 

கவிப் பேரரசர் கண்ணதாசன்  ஹிந்தி மயிலே ஆடு.

 தாயகம் உன்னைத் தாங்கும்

 என்று  கவிதை பாடியுள்ளார். முத்தமிழ் காவலர் 

கி. ஆ. பெ விஸ்வநாதன் அவர்களும் இறுதி காலத்தில் ஹிந்தி படிக்க வேண்டும் என்று 

கூறியுள்ளார். பேராசிரியர் 

 சாலமன் பாப்பையாஅவர்களும்

ஹிந்தி அவசியம் பற்றி கூறியுள்ளார்.


 ராமேஸ்வரம் கன்னியாகுமரி போன்ற ஸ்தலங்களில் சங்கு வியாபாரிகள் ஹிந்தி பேசு கின்றனர்.

   1900 த்திற்கு முன்னால் இருந்த ஹிந்தி இலக்கியம்  ஹிந்தி அல்ல.

 வித்யா பதி  மைதிலி மொழி 

 துளசிதாசர் அவதி மொழி 

 மீரா சூர்தாஸ் வ்ரஜ பாஷை.

 கபீர் கலப்பட மொழி.


    1900ஆண்டுதான் பாரதேந்து  ஹரிச்சந்திரர் கடிபோலியில் இலக்கியம் படைத்தவர்.

 அவர் தன் தோஹையில் 

 தாய்மொழி முன்னேற்றமே 

அனைத்து முன்னேற்றத்திற்கும் 

 ஆணிவேர் என்று கூறியுள்ளார்.


  பாரதத்தில் பத்துக் கோடி தமிழர்கள்.

 அதில் 40%திராவிடக்கட்சி எதிர்ப்பு.

   பாஜகவின்   செயல்பாடு 

தமிழின் பெருமையைசெங்கோல்  பாராளுமன்றத்தில் வைத்து பெருமை படுத்தியது பாராளுமன்றத்தில் தமிழ் இலக்கியங்கள் பேசுவது புறநானூறு திருக்குறள் புகழப்படுவது என தமிழ் புகழ் வடநாட்டு மக்கள் தமிழ் அறியத் தூண்டு கிறது.

 ஹிந்தி பழம் பெரும் மொழி என்று கூறவில்லை.

 அதன் பெரும் வளர்ச்சி வியக்கத்தக்கது.

 இதை தமிழ் இளைஞர்கள் புரிந்து தெளிய வேண்டும்.

  தமிழ் வழி பள்ளிகள் மூடப்பட்டு 

 தமிழ் பேசுவது அழகல்ல என்ற மன நிலை தமிழகத்தில் மட்டுமே.

    அரசுப் பள்ளிகளில் ஆங்கில வழி பெருமை அல்ல.

  மக்கள் இளைஞர்கள் சிந்திக்க வேண்டும்.


சே. அனந்த கிருஷ்ணன்.

 ஓய்வு பெற்ற தலைமை ஆசிரியர்.

 ஹிந்து மேல்நிலைப் பள்ளி திருவல்லிக்கேணி.