Friday, November 8, 2024

सनातन वेद जगदीश्वर

 3601. सुख एक ही है। वह सदा आनंदप्रद है। वह स्थाई है। तैलधारा जैसे है। वह नित्य है। वह एकरस है ।वह निरुपाधिक सुख है। वह  सब सुखों से श्रेष्ठ सुख है। सब  सुखों में से बडा  सुख  वही  है। वही ब्रह्म है। वही सर्वव्यापी परमात्मा है।वही परम ज्ञानस्वरूप है। वही काम रहित यथार्थ प्रेम है। वही अनिर्वचनीय शांति स्वरूप है। वही  मैं  रूपी अखंडबोध है।वह अखंडबोध रूपी परमानंद स्वरूप के बदले जीव सदा दुख ही भोगते हैं। दुख भोगने के कारण यही है कि  वह स्वयं आत्मा है का ज्ञान न होना ही है। सर्वव्यापी बननेवाले अपने को पंचभूत के पिंजड़े बने मन,शरीर और प्राण सोचकर संकुचित शारीरिक अभिमान और अहंकार के साथ जीने से ही अहंकार के स्वभाव राग द्वेष, काम-क्रोध आदि से पूर्ण पवित्र आत्मा को छिपाकर दुखों का गुलाम बनकर नरक जीवन जीते हैं।


3602. नाटक के अभिनेता के अभिनय देखकर दर्शक खुश होते हैं। पर अभिनेताओं को केवल काल्पनिक आनंद होंगे। उनको यथार्थ आत्मा के स्वभाविक  स्थाई आनंद न होंगे। नृत्य कला में  रुचि होने पर भी,कला को ईश्वरीय मानने पर भी, मनोरंजन के लिए होने पर भी मानसिक और शारीरिक दुख होगा। उसका कौशल नृत्य क्षमता निर्देशक और दर्शकों को समझाने के विचार से ही होगा। तब उसका अहंकार लोगों को संतोष करने के लिए,नाम और धन कमाने के लिए लगातार अभिनय करने विवश कर देगा। उनको आत्मज्ञान सीखने के लिए ,आत्मबोध के साथ कर्म करने को समय न मिलेगा। अतः अंतरात्मा की स्वभाविक शांति और आनंद का अनुभव नहीं कर सकते। वैसे ही आत्मबोध रहित जीवन चलानेवालों की सब की स्थिति होती है। उनमें कुछ लोग संसार को ,कुछ लोग परिवार के लिए और कुछ लोग कुछ लोगों को संतुष्ट करने-कराने  मज़बूर होते हैं। पहाड के ढेर-सा धन कमाने पर भी उनको भोगने के लिए, उसको समय न रहेगा या मन न रहेगा। न तो शरीर साथ न देगा। वह नाचना,अभिनय करना और अपना धंधा छोडकर यथार्थ स्थिति जब समझने लगता है,तब पिछले समय की विषय वासनाएँ उसको न छोडेंगी। या अगला जन्म लेने का बीज बोकर मरेगा। कारण मनुष्य की आयु कम ही है।उनमें विवेकशीलल आदमी सत्य की खोज करने की कोशिश करेगा,पर वह सत्य को जान न सकेगा। जो मनुष्य आत्मा का महत्व जानता है,उसी को शांति और आनंद मिलेगा। दूसरों को स्वप्न में भी शांति नहीं मिलेगी। कला जो भी हो ,नृत्य हो, नाटक हो,संगीत हो वे संसार और शरीर के परम कारक बोध भगवान को संतुष्ट करने के लिए हो तो वास्तविक आनंद मिलेगा। अर्थात् संकल्प अवतार देव-देवी मंदिर के सामने  भक्तों के लिए भगवद् कीर्तन,भगवद्नाट्य, सत्य की और भक्ति की भावना जगानेवाले कलाकारों को ही आत्मा शांति और आनंद मिलेगा। आत्मबोध के बिना जड वस्तुओं के लिए जीवन व्यर्थ करनेवालों को नित्य दुख ही मिलेगा। केवल आत्मा मात्र आनंद देगा।

3603. आत्मबोध रहित,सत्य की खोज रहित, स्वयं अज्ञानी बनकर औरोंको भी अज्ञानी बनाने का कार्य ही लौकिक जीवन है। इसके विपरीत इनसे परिवर्तित जीवन जीना,अपने आपको पहचानना अर्थात् शरीर और संसार को विवेक से जानकर  शरीर और संसार मैं नहीं ,इस शरीर और संसार के परम कारण रूप अखंडबोध ही है।  इस बात को अपनी बुद्धि में दृढ बनाकर शारीरिक याद और सांसारिक याद  और शारीरिक और सांसारिक कर्म बंधनों  से  और दुख से विमोचन पाकर, शरीर और संसार को भूलकर, किसी भी प्रकार के संकल्प के बिना एक मिनट भी अपने अखंड बोध स्थिति  से न हटकर रहना चाहिए ।जो व्यक्ति कमल के पत्ते और पानी के जैसे माया भरी संसार में निस्संग जीकर विदेह मुक्त बनता है,वही बोध स्वभाव के परमानंद स्थिति को पाकर वैसे ही स्थिर रहता है।


3604. अहंकार और अधर्म के प्रतिबिंब रामायण में रावण, महाभारत में दुर्योधन और  उनके अनुयायी आत्मा का महत्व न जानकर ,आत्मा का महत्व न जानकर दुखी होकर संसार से चल बसे। उनके जैसे न बनना चाहें तो रामायण में परमात्मा का प्रतिबिंब राम को और महाभारत में परमात्मा का प्रतिबिंब कृष्ण को प्रार्थना करके उनके शुभ-वचनों को स्वीकार करके व्यवहार मेंं लाये उनके साथ मिलकर उनके जैसे ही बदलनेवाले मनुष्य ही मनुष्य आत्मा के महत्व का एहसास करनेवाले होते हैं।उनको सारा संसार नफ़रत करने पर भी सदा आनंदवान होते हैं।
उनको जेल में डालने पर भी वे सर्व तंत्र स्वतंत्र ही रहेगा। उनसे प्यार न करने पर भी प्यार के स्वरूप ही रहेगा। वे कुछ भी न करने पर भी सब कुछ होनेवाले के जैसे ही  जीवन होता है।

3605. ब्रह्म शक्ति महामाया रूपी प्रकृतीश्वरी के प्रतिबिंब स्त्री एक पुरुष की ओर कठोर शब्द कहते समय वह अपने यथार्थ स्वरूप परमार्थ स्वरूप तत्व समझाने के लिए  सहायिका सोचकर सब्रता से स्वयं को महसूस न करके
जो पुरुष स्त्री की जोर शोर सुनकर क्रोधित होकर अपने अहंकार को प्रकट करने
की कोशिश करता हैं, वह संसार और शरीर के बीच के परम कारण सत्य को पहचानने में असमर्थ हो जाता है। साथ ही माया  कर्म चक्र जेल में फँसकर तडपेगा। उससे मुक्त हो जाना है तो संसार के सभी स्त्रियों को पराशक्ति का अंश मानकर सत्य जानने के लिए उनको आराधना  करके याचना करनी चाहिए।
तभी महामाया अपने यथार्थ स्वरूप अखंडबोध में अटल रहने की मदद करेगी। नहीं  तो महामाया आत्मबोध में रहने  कभी नहीं देगा। कोई भीअपने को  अग्नी ज्वाला स्त्री से बचा नहीं जा सकता। अर्थात  क्या वास्तव में ब्रह्मशक्ति माया ब्रह्म से अन्य एक स्थान से आया है?अन्य? नहीं।  अर्थात्  निश्चल ब्रह्म अपनी निश्चलनता और सर्वव्यापकत्व  के परिवर्तन के बिना अपनी अलौकिक शक्ति लेकर अर्थात्  अपने स्वभाविक योग माया को लेकर  अपने आपको ही स्वयं चलनशील रूप में बदलकर  एक रूपी अनेक रूप में परिवर्तन होने के साथ ही परमात्मा से अन्य कोई पराशक्ति नहीं है। एक ही ब्रह्म मात्र है। उसी को मैं रूपी अखंड बोध ही है। उस अखंडबोध रूपी अपने स्वभाविक परमानंद ही है।

3606.  इस संसार में  एक  साधारण आदमी  मैं, मेरा के अभिमान से एक जीवात्मा से सांसारिक व्यवहार करते समय अपने से बढकर एक शक्ति अर्थात् भगवान है की याद होगी। उसी समय संसार को अपने को आत्मआत्मज्ञान से
विवेक से देखते समय भगवान ही अपने अहमात्मा और स्वयं  रहकर इस शरीर को लेकर सभी कर्म करने को महसूस कर सकते हैं। अर्थात एक जीवात्मा मनुष्य में अकारण अपने आप कई संकल्प उमडकर आते हैं। उनको अपने आप नियंत्रण न करें तो उनके द्वारा होेनेवाले दुख के कारण स्वयं के सिवा दूसरी एक शक्ति कारण न बनेगी।कारण दूसरी कोई शक्ति को अपने में मिले बिना अस्तित्व नहीं है। जो स्थाई रूप में दुख निवृत्ति,आनंद और शांति स्थाई रूप में चाहते हैं,
उनको अपने में उमडकर आनेवाले संकल्प नाटकों को माया विलास सोचकर किसी भी मूल्य पर नियंत्रण करके या उसके लिए जीवन को त्याग करके अपने यथार्थ स्वरूप अखंड बोध को पुनर्जीवित करके स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए। तभी अपने स्वभाविक परमानंद को स्वयं भोगकर वैसे ही स्थिर रह सकते हैं।


3607.एक मनुष्य को जाति, मत,भाषा, विश्वास आदि मुख्य नहीं है।पीने के लिए पानी, साँस लेने के लिए हवा,भूख मिटाने के लिए खाना,ठहरने के लिए स्थान आदि ही प्रधान होते हैं। वे सब के सब मिलने पर भी उनमें अहमात्मा के स्वभाविक आनंद,स्वतंत्र,शांति की प्रार्थना करता है और खोज करता रहता है।वैसे ही सभी जीव खोजते रहते हैं। उनमें जिस जीव को आत्मज्ञान सीखने का ज्ञान मिलता है, वही सत्य का महसूस कर सकता है। अर्थात् “मैं” के केंद्र से ही सब कुछ चलता है। कारण मैं रूपी अखंड बोध केंद्र नहीं तो संसार और शरीर नहीं होते। अपनी शक्ति माया मन अपने हित के अनुसार  संकल्पों को बढाकर स्थूल सूक्ष्म शरीरों को,उसके आवश्यक अंतःकरणों को बनाकर ही अपने बनाये जग में अपने द्वारा सृष्टित शरीर की सहायता से व्यवहार करता रहता है।उनसे बाहर आना न आना जीव के अपने वश में ही है।जीव का अपना अपराध और दोष ही है। अतः अपनी कमियों के लिए दूसरों पर,भगवान पर दोषारोपण करना सही नहीं होता। इस बात को एहसास करना चाहिए कि जीवों के अपने दुख और नरक वेदना भोगने के मूलकारण स्वयं ही है। अतः विवेक पूर्वक पता लगाना चाहिए कि हमारे सभी सोच-विचार के परम कारण शक्ति कौन-सी शक्ति है,वह क्या है? उस परम कारण का पता लगाना ही सभी समस्याओं का प्रायश्चित्त होगा।कयोंकि वह परम कारण ही सब कुछ होता है। वही अखंडबोध है। उसका स्वभाव ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति होते हैं,जो इनका एहसास करता है,वही भाग्यवान होता है, जो नहीं समझता,वह दुर्भाग्यवान होता है।

3608. कमल के जन्म के मार्ग की खोज करते समय पता लगता है कि उसको स्थिर खडा रहने  के लिए कीचड अनिवार्य होता है। जो कीचड से स्नेह नहीं करते,वे उसको तोडकर उसकी सुंदरता के आनंद को अनुभव नहीं कर सकते। अर्थात्  कमल सूखते समय वह फिर  कीचड में बदल जाता है। कीचड ही कमल बनता है। बीज और पेड का आधार  मिट्टी ही है।  बीज और पेड दोनों को मिट्टी में डालने से  दोनों मिट्टी बन जाते हैं। उसी मिट्टी में ही पेड उगते हैं।पेड से ही बीज बनते हैं। स्वप्न में आम के पेड से आम तोडकर खाते समय वह सत्य ही लगा।
उस स्वप्न के आम किस पेड के हैं के सवाल यही कहेगा कि वह तो केवल स्वप्न है। वैसे ही इस जागृत अवस्था में जो कुछ दीख पडते हैं,वे सब एक स्वप्न है और कोई युक्ति नहीं है। वैसे ही एक महान की मित्रता के लिए उस महान के दोस्तों से प्यार करना चाहिए।वैसे ही गुरुओं की मित्रता के लिए उनके शिष्यों से भी प्यार करना चाहिए। अर्थात्  ज्ञान-अज्ञान में  जिसमें समदर्शन है,उसी को ही शांति और आनंद स्थाई रूप में मिलेगा। अर्थात दिन में अंधकार को टालनेवाले रात में सोने के लिए प्रकाश को टालते हैं। अर्थात् एक एक के लिए पूरक है। वैसे ही असीमित अखंडबोध भगवान मात्र है।यह कहने के लिए सीमित एक शरीर की आवश्यक्ता है। बोध अखंड है,वैसे ही माया शक्ति भी अखंड है। रेगिस्तान में मृगमरीचिका होती है.  स्फटिक शिला दबाई जमीन पर पानी का झलक होगा। इसलिए ब्रह्म शक्ति रूपी माया का दृश्य ब्रह्म का स्वभाव ही रहेगा। ब्रह्म रूप में दृश्य नहीं है। दृश्य रूप में ब्रह्म नहीं है। सदा एक ही विद्यमान है। जो इस रहस्य को जानता है, वही ज्ञानी है। उसको दुख कभी नहीं होगा। अर्थात बोध में ही प्रपंच दृश्य होता है। वह बोध में ही स्थिर रहता है। उसका मिट जाना भी बोध में ही है। लेकिन बोध नहीं है, कहनेवाला भी बोध ही है। बोध मात्र है।

3609. भारत में वाल्मीकि लिखित रामायण कहानी में ,परमात्मा के  प्रतीक श्री राम की पत्नी पराशक्ति का प्रतिबिंब सीता,  मन को मोह के प्रतिबिंब स्वर्ण हिरन पर हुई इच्छा के कारण, उनको जीवन भर दुख हुआ। इसलिए लालची मनुष्य को होनेवाले महा दुख को ही रामायण में वाल्मीकि बताते हैं। अर्थात सीता राम के साथ रहते समय परमानंद स्वरूप में था। सीता अपनी इच्छा के कारण ही दुखी रही। वैसे ही मन में जब इच्छा होती है,तब दुख भी आ जाता है। आत्मा रूपी  श्रीराम को भूल जाने से ही सभी प्रकार के दुख आ जाते हैं।अतः जो कोई दुख से विमोचन पाना चाहते हैं, उसका मन आत्मा रूपी राम से मिलकर एक क्षण भी बिना हटे रहना चाहिए। तभी परमानंद को भोगकर परमानंद स्वरूपी हो सकते हैं।

3610. जो  अविवेकी सबके परम कारण बने आत्मा रूपी अपने में  अपने मन को  प्रतिष्ठा नहीं कर सकते ,वे ही संकल्प-विकल्प बंधन के जेल से मुक्त न होकर तडपते रहते हैं। लेकिन रूप की सच्चाई जानकर जिन के मन में इच्छा नहीं है,उनका मन ही आत्मा से जुडकर आत्मा बन सकता है। उनके कालातीत ही शांति नामक स्वर्ग है। रूप सच्चाई को कैसे एहसास कर सकते हैं? 10 किलो स्वर्ण लेकर एक आभूषण दूकानदार दस हज़ार आभूषण बनाता है। चंद साल के बाद उन दस हजार स्वर्ण आभूषणों को पुनः सोने का डला बनाता है। आभूषण केवल नाम मात्र है। स्वर्ण को भूलनेवाले ही चूडियाँ, अंगूठी,हार कहते हैं। सचमुच हार, अंगूठी, स्वर्ण है।दूसरी कोई वस्तु कहीं नहीं है। स्वर्ण मात्र है।इस प्रकार ही निराकार मैं,रूपी अखंडबोध प्रपंच मे बदलने पर भी दूसरी एक वस्तु प्रपंच में नहीं है। पुनः प्रपंच अखंड  बोध में बदलते समय बोध मात्र ही है।स्वर्ण नहीं तो आभूषण नहीं है। वैसे ही बोध नहीं तो प्रपंच को देख नहीं सकते।

3611. जिन्होंने  आत्मज्ञान में पूर्णत्व पाया है,वे ही यथार्थ गुरु होते हैं। गुरु को ही उपदेश देने की योग्यता होती है। सत्यवान को और सत्य के चाहकों को ही गुरु उपदेश देंगे।रामायण में रावण,महाभारत में दुर्योधन जैसे अहंकारियों को गुरु ज्ञान का उपदेश न देंगे। उन पर दया करके उनको उपदेश देने पर भी वे उपदेश को स्वीकार न करेंगे,उपदेश देनेवालों को अपमानित करेंगे।
3612. झोंपडी से लेकर बंगला तक पद जो भी हो पद पर रहनेवालों के नीचे जो हैं,उनकी सहायता के बिना पद पर रहनेवले चैन से रह नहीं सकते। वैसे ही एक भगवान की सृष्टि में मिलकर अनेक में बदलते समय अपने योग माया के द्वारा जीवों में प्राण भय उत्पन्न करते हैं। मन में समता न होने से ही भय होता है। अनेकता में सम दशा न होगी। मन समदशा न होने पर अनेकता न रहेगी।यथार्थ पद का मतलब है मन में सम स्थिति प्राप्त करना। इसी कारण से देवलोक,भू लोक, परिवार,समाज और राज्य में रहनेवाले समता लाने में अप्रत्यक्ष रूप में अस्वीकार करते हैं। जो पद चाहते हैं, वे सम दशा पर रह नहीं सकते। ईश्वरीय शक्ति माया को लेकर भगवान अपनी लीला करने के लिए निश्चल परमात्मा रूपी अपने अखंड बोध को अपनी शक्ति माया अज्ञान रूपी अंधकार को ढककर एकाकार को अनेकाकार बनाकर अनेकता को बना बनाकर खेलते रहते हैं।वह माया भरी क्रीडा ही यह ब्रह्मांड होता है। सत्य में मैं रूपी अखंडबोध ही नित्य सत्यपरमानंद स्वभाव से स्थिर खडा रहता है।

3613.विवेक और क्षमता रहनेवाले को बकरी को गधा बनाने के जैसे कायर न बनाकर अराजकत्व चाहनेवाले आत्मबोध रहित आत्मज्ञान रहित अविवेकी राजा  राज्य का शासन नहीं कर सकता। वे सोच रहे हैं कि सर्वांतर्यामी परमात्माा सूर्य को अपनी उँगलियों  से छिपा सकते हैं। इसीलिए उनको बहुत बडा  पतन होता है। संसार और शरीर के परम कारण अखंडबोध ही है। जो  राजा इस ज्ञान को समझकर  दृढ बनाकर शासन करता है, उनके शासन में लोग शांति और संतुष्ट रहेंगे। कारण सभी प्रजाओं में जो आत्मा अर्थात् बोध स्वयं बने अखंडबोध के भाग ही समझने से राजा अपने जैसे प्रजाओं से भी प्यार करेंगे।

3614.  एक विवाह करनेवाले युवक को समझना चाहिए कि जो पत्नी आनेवाली है वह उसके सभी संकल्पों के अनुकरण नहीं करेंगी। कारण पत्नी कहनेवाली एक मानव मन है। मन प्रकृति है।प्रकृति को स्थिरता नहीं रहेगी। वह तो परिवर्तन शील होती है। वह संदेह का आकार है। उसके कारण  वह अज्ञान का अंधकार  होती है। आत्मा का स्वभाव प्रकृति के विपरीत होता है। इस आत्मा और प्रकृति से बने तत्व ही अर्द्धनारीश्वर का तत्व है।वह ईश्वरीय शक्ति ही पत्नी के रूप में आती है। वही शिवशक्ति है।अर्थात् प्रकृति पुरुष संगम ही यह प्रपंच और उसमंअंतर्यामी परमात्मा है। अर्थात् सभी जीवों में चलनेवाला प्रणय अर्थात् प्यार। जब इसका एहसास करते हैं ,तभी पारिवारिक जीवन आनंद होगा।

3615.  जो अपने शरीर और संसार को सत्य मानते हैं, वे  शास्त्र सत्य को न जानते हैं, वे अज्ञानी होते हैं। उन अज्ञानियों में ही जाति,मत,वर्ण,आदि भेद  होते हैं। उन भेदों के  कारण  ही राग,द्वेष, काम,क्रोध, सुख-दुख आदि होते हैं। अर्थात्  शास्त्र सत्य के ज्ञाता आत्मबोध के एक व्यक्ति उसकेे शांतिपूर्ण मन को इस अज्ञान विषयों में ले जाकर अशांति का पात्र न बनेंगे। इस संसार में स्त्री-पुरुष होते हैं। उनमें जाति-कुल आदि पर ध्यान न देखकर कुछ लोग विवाह कर लेते हैं।काल,देश,जाति,कुल,संप्रदाय न देखकर प्रेम भी कर लेते हैं। इसके कारण है कि उनमें जो  आत्मा है,वह एक ही है। इसीलिए दो देखनेवाले मन में एक होने की प्रेरणा होती है।अर्थात्  उनके शरीर प्रकृतीश्वरीरूपी महामाया शक्ति होते हैं।
आत्मा शिव होता है।अर्थात् प्रेम की उच्चतम अवस्था में दोनों रूप विस्मरण में एक ही स्थिति में आत्मा सर्वव्यापी बनकर सर्वत्र विद्यमान हो जाने से दूसरा एक जड-कर्म चलन रूप हो ही नहीं सकता। कारण चलन बनी माया में भी आत्मा भरी रहने से अखंड परमात्म बोध में दूसरी एक शक्ति अर्थात् चलन कभी नहीं होगा। वही ब्रह्म स्थिति होती है। अर्थात् जिसमें ब्रह्म बोध होता है,उनको ही मैं ब्रह्म हूँ का ज्ञान दृढ हो जाता है,वे ही परमानंद और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करते हैं। जिनमें  द्वित्व है,वे दुख से बाहर नहीं आ सकते। यही परम रूप शास्त्र सत्य है।


3616. इस प्रपंच भर में निराकार ईश्वर दीवार रहित चित्र ही है। इस प्रपंच का ईश्वर सुंदर है। इसलिए ईश्वर को देखनेवाले ईश्वर की सुंदरता को देख सकते हैं। लेकिन जिसको सुंदरता पर मोह है, वे ईश्वर को देख नहीं सकते।कुछ मंदिरों में बडे पत्थर पर बने देव-देवियों को ही आराधना करते हैं। भक्त पत्थर को भूलकर ही देव-देवी से प्रार्थना करते हैं। लेकिन वहाँ पत्थर मात्र है। देव-देवी उनके संकल्प में होते हैं। वैसे ही स्वयं बनेे अखंड बोध में उमडकर आये रूप ही यह प्रपंच होता है। प्रपंच को देखनेवालेे बोध को भूल जाते हैं।. बोध नहीं तो प्रपंच नहीं है। पत्थर नहीं तो देव-देवी संकल्प नहीं होते। इसलिए बोध मात्र सत्य स्वरूप होता है। प्रपंच संकल्प है। संकल्प माया है। माया सृष्टित सब के सब मिट जाते हैं। इसलिए माया द्वारा सृष्टित वस्तुओं को सत्य माननेवाले रूप नाश के कारण दुख का पात्र बनते हैं। संकल्प के कारण बने मन को बोध में विलीन करके दृढ बनाते समय चलन रूपी मन  सर्वव्यापी निश्चल बोध के सामने अस्थिर हो जाता है। साथ ही संकल्प का नाश होता है। संकल्प के नाश होते ही सभी प्रकार के दुख नाश हो जाते हैं। अर्थात दृश्यों के मिटते ही दृष्टा मात्र सत्य रूप में स्थिर खडा रहता है। जो कोई प्रपंच दृश्यों में बोध स्वरूप आत्मा को अपने में भरकर देखता है,वह ब्रह्म के बिना दूसरी एक वस्तु को कहीं नहीं देख सकता। अर्थात बोधाभिन्न जगत। अर्थात ब्रहम मात्र है। अन्य दृष्टित अमीबा से ब्रह्मा तक के नाम रूप भगवान के सिवा और कोई नहीं हो सकता। वह सत्य है।वैसे हर एक जीव अपने को भगवान की अनुभूति होने तक  जीव को दुखों से विमोचन न होगा। कारण  जब तक रेगिस्तान होता है, तब तक मृगमरीचिका दीख ही पडेगी। वैसे। ही ब्रहम नित्य होने से प्रपंच दृश्य भी नित्य होगा ही। कारण ब्रह्म रूप के बिना दूसरा एक किसी भीी काल में दूसरी एक वस्तु बना ही नहीं है।

3617. अपने शरीर और अपने अंग,प्रत्यंग,उपांगों को अपने से अन्य नहीं सोचते। वैसे ही स्वयं बने अखंड बोध में उमडकर देखनेवाले सभी प्रपंच रूप बोध रहित दूसरा बन नहीं सकता। अर्थात बोध मात्र सत्य रूप है।बोध को भूलकर बोध में उमडकर दीखनेवाले शरीर में अभिमान होकर बने अहंकार ही शरीर बना है। वैसे लोगों को ही यह संसार अन्य लगेगा। अन्य चिंतन से बननेवाली भेदबुद्धि,राग-द्वेष, काम क्रोध उनके द्वारा सभी प्रकार के दुख होते हैं। कारण अहंकार नहीं जानता कि अहंकार बोध से आश्रित होकर ही स्थिर खडा है। इसलिए जो कोई अहंकार को मिथ्या,मैं अखंड बोध है का एहसास करता है,केवल वही परमानंद को अनुभव करके वैसा ही बन सकता है।

3618.  इस बात को सोचना सिवा मूर्खता के और कुछ नहीं है कि एक मनुष्य शरीर में होनेवाले सभी चलन क्रियाएँ मनुष्य के अनजान में ही जो चलाता है, उसको इस जीव के लिए जो कुछ आवश्यकता है उन्हें  वह नहीं जानता। हर एक जीव में भगवान रहकर ही इस शरीर को उपयोग करके सभी कार्य कर रहे हैं, पर अहंकारी मानव भगवान को भूलकर इस संसार को अपने अधीन लाने को सोच रहा है। लेकिन आज तक कोई भी राजनीतिज्ञ  संसार को  सीधा बनाने को सोचता नहीं है।महान भी सोचकर व्यवहार नही्ं करते। कारण यह संसार नहीं है।इसी कारण से इस संसार को सीधा नहीं कर सकते। इसीको एक हद तक वैज्ञानिक भी मानते हैं। उदाहरण स्वरूप एक स्कूल के विज्ञान के अध्यापक एक मेज़ को देखकर यही सिखाते हैं कि इसमें प्रोटान और एलक्ट्रान है। पर यह नहीं सिखाते है। कि इनका उत्पत्ती स्थान मैं रूपी अखंडबोध है। वेदांत ही यह सिखाता है।

3619.जो अपने संसार को अपने से अन्य रूप में देखने के जैसे अपने शरीर को,मन को बुद्धि को,प्राण को अपने से अन्य रूप में देख सकता है, वही मैं शरीर से बना है के विचार से यह महसूस कर सकता है कि संसार और शरीर का परम कारण बने अखंडबोध स्वयं ही है। उस स्थिति को जब पाते हैं, तभी  एहसास होगा  कि  मैं रूपी अखंड बोध जन्म मरण रहित स्वयंभू है, वह अपरिवर्तनशील है, वह स्वयं प्रकाश रूप है, वह अनंत है, वह अनादि है।तभी यह शरीर और संसार मैं बने अखंडबोध में अपनी शक्ति माया दिखानेवाले एक इंद्रजाल मात्र है। वह बोध का एक भ्रम है, उस भ्रम में भी  मैं रूपी अखंड बोध भरे रहने से स्वयं का अखंडबोध मात्र ही स्थिर रहता है। इस बात को एहसास करके अपने स्वभाविक परमानंद को भोगकर वैसा ही रह सकता है।

3620. पंचपांडव  रूपी पंचेंद्रियों को दुर्योधन रूपी अहंकार नियंत्रित घमंडी दुःशासन के द्वारा पांचाली के मन को कलंकित करते समय पांचाली वस्त्र तजकर दोनाें हाथों को जोडकर ऊपर उठाकर परमात्मा कृष्ण से अभय की माँग की है। जब मन परमात्मा में ही लग जाता है, तभी सभी दुखों से विमोचन मिलेगा। तब तक जीव का मन चित्त विकार काम-क्रोधका गुलाम बनकर अहंकार के हाथ में फँसकर दुखी होगा।

3621. साधारण मनुष्य जो अपनाा है,उससे संतुष्ट न होकर अपना जो नहीं है,
उन सबको अपनाने की इच्छा रखताा है,यह मानव स्वभाव है। इसी कारण से पति और पत्नी दोनों शादी के बाद एक दूसरे को न चाहकर दूसरे स्थान में सुख के लिए भटकते हैं। अर्थात् जो कुछ वे ढूँढते हैं, वे सब आत्मा में अर्थात् अखंडबोध में है। यह आत्मज्ञान न होने से ही अभिलाषाएँ होती है। इसलिए शरीर और संसार को विवेक से जान-समझकर अनित्य विवेक द्वारा शरीर अनित्य है, आत्मा सत्य है के ज्ञान के होते ही असत्यय शरीर पर इच्छा न रखकर आत्मा से प्यार होगा। वैसे आत्मा से प्यार होने के बाद ही आत्मा का स्वभाव परमानंद को निरुपाधिक रूप में स्वयं अनुभवव करके आनंद होकर वैसा ही बन सकते हैं।

3622.एक कूडेदान में एक हीरे की अंगूठी है तो वह कूडों के बीच चमकेगी। उसकी प्रकाश की किरणें देखकर जो उसे लेना चाहता है,उसको पहले कूडों को उठाकर हटाना है। जो कूडों को निकाल नहीं सकता, वह अंगूठी प्राप्त नहीं कर सकता। वैसे ही अपना शरीर एक कूडेदान है। उसमें से ही आत्मा रूपी हीरा पंचेंद्रियों में मिलकर चमक रही है। जो कोई आत्मा रूपी हीरा पाना चाहता है तब उसको आत्मा को छिपानेवाले मन,बुद्धि प्राण और शरीर के कूडोंं को पहले मिटाना चाहिए।  मन के कूडे को कैसे निकालना चाहिए? यह चिंतन करना चाहिए कि मैं मन,बुद्धि, प्राण नहीं है,मैं इन सब के साक्षी स्वरूप आत्मा हूँ। इन ज्ञान की भावनाओं को मन में दृढ बना लेना चाहिए कि  मन में,बुद्धि में प्राण में शरीर में रहनेवाली सर्वव्यापी आत्मा ही भरी रहती है। वैसे आत्मा सकल चराचरों में भरी रहती है कि भावना बढाते समय नाम रूप खुद छिप जाएगा।
साथ ही स्वयं आत्मा बने  अखंड बोध का ज्ञान दृढ होगा। साथ ही आत्मा के परमानंद को स्वयं भोग सकते हैं। वैसा ही रह सकते है। अर्थात् अपनी शक्ति माया अखंडबोध है। अपने को अकारण बंद करने से ही स्वरूप विस्मृति होती है। उस स्वरूप विस्मृति से स्वरूप स्मृति आने के मार्गों को ही सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म से उमडकर आये वेद और उपनिषद बताते हैं। ब्रह्म ही ऋषि बनकर ढंग से लिखकर रखा है।

3623. जो कोई इस जन्म में मनुष्य आत्मा को मुख्यत्व देकर जिंदगी को अर्पण करता है, वह अनेक जन्मों में माया के बंधन में जीवन बिताकर आत्म प्यास के साथ चल बसा होगा। वही स्वयं गुरु हो सकता है। एक आत्म उपासक को अमीबा से ब्रह्मा तक किसी भी रूप को बुद्धि में रखना नहीं चाहिए। जिस रूप को सोचकर जीव मरताा है,उसी रूप लोक को ही जीव जाएगा। इसलिए देव-देवी के दर्शन देने पर भी ,सद्गुरु  के लाभ होने पर भी शरीर रूप में मन लगाना नहीं चाहिए। कारण शरीर रूप सब जड कर्म चलन माया ही है। इसलिए रूप रहित अखंडबोध ही स्वयं है को दृढ  बनाकर सब में अपने को ही दर्शन करके बोध स्वरूप आत्मा का स्वभाव परमानंद  और अनिर्वचनीय शांति का अनुभव करना चाहिए। वैसे स्थितप्रज्ञ और ब्रह्म दर्शन भी मनुष्य की अज्ञानता मिटाकर ज्ञानमार्ग को स्पष्ट करेगा। लेकिन अपने आप  को ही एहसास करके बोध से ज्ञान की दृृढताा होने पर ही स्वयं को साक्षात्कार कर सकते हैं। गुरु के मार्ग दर्शन मिलने पर भी अपने आपको महसूस करना चाहिए। अपनी रक्षा खुद करनी चाहिए। वैसे करने से सत्य से स्वयं न हटकर चित्त खुद मिट जाएगा।मैं रूपी सत्य मात्र नित्ययानंद के रूप में  स्थिर खडा रहेगा।

3624.रामाययण, महाभारत,भागवत्, वेद आदि के रचयिता कौन है? कब लिखा है? कहाँ लिखा है? इनकी खोज करके प्रपंच के मूल की खोज में जाना निरर्थक होता है। कारण प्रपंच तीन कालों में नहीं रहता।लेकिन ईश्वरीय शक्ति माया के द्वारा सृष्टि, स्थिति और संहार चलते रहते हैं। वैसे ही वेद सृष्टि के आरंभ में ही रचित है। क्योंकि ब्रह्म ही वेद रूप में,अक्षर रूप में आते हैं। अर्थात् वह ब्रह्म ही माया शरीर को स्वीकार करके ऋषियों के रूप में नियमानुसार वेद और उपनिषदों को बनाया है। वह अज्ञानी जीवों को ज्ञानी बनाने के लिए ही है। लेकिन एक रूप अनेक रूप में दीख पडना निश्चल ब्रह्म अपनी स्थिति से परिवर्तन न होकर स्वयं ही चलन शक्ति के रूप में रहकर बनाये गंधर्व नगर ही यह प्रपंच, प्रपंच की भूमि और सभी ग्रह, जीव और उनके जीवन होते हैं।उदाहरण स्वरूप रेगिस्तान की मृगमरीचिका देखकर उसको पानी समझकर हिरन दौडते रहते हैं। दौड-दौडकर मर जाते हैं। हिरन का प्यास कभी बुझा नहीं है। वैसे सत्य के अज्ञात, आत्मबोध रहित अविवेक मनुष्य अधिक होते हैं। जो है,उसका नाश नहीं होता। जो नाश होता है,उसका अस्तित्व नहीं होता। जो है, उसको बनने की आवश्यक्ता नहीं है।
ब्रह्म स्वयंभू है। इसलिए उसका नाश नहीं होता। लेकिन ब्रह्म में यह प्रपंच दृश्य बनाया -सा लगता है। अतः वह नश्वर होता है। वास्तव में वह तीनों कालों में नहीं रहता। लेकिन है सा लगता है। वह बोध का भ्रम है। अपनी शक्ति माया ही इसका कारण है। ब्रह्म एक है,अनेक नहीं है।कारण ब्रह्म अपरिवर्तनशील है। जो सोया है,वह अपने स्थान से हटता नहीं है। लेकिन वह स्वप्नन में एक ब्रहमांड को बनाकर उसमें व्यवहार करके सुख-दुखों का अनुभव करके नींद के टूटते ही कुछ नहीं रहता। उसके स्वप्न लोक में भी वह नहीं है। लेकिन यथार्थ-सा अनुभव होता है। वैसे ही ब्रह्म न हिलकर चलायमान प्रपंच की सृष्टि करके अपनी लीला रचता है। अर्थात् यह प्रपंच एक स्वप्न ही है। जो इस शास्त्र सत्य को मिथ्या सोचता है,वह दुखी रहेगा। जो सत्य जानता है, उसको आनंद मिलेगा।इसलिए मैं यह शरीर और संसार नहीं है,इनके परम कारण मैं रूपी अखंडबोध ही है। इस ज्ञान को  जो भी मूल्य हो देकर खोजकर जान-समझकर बुद्धि में दृढ बनाकर मैं रूपी अखंड बोध के स्वभाविक परमानंद को अनिर्वचनीय शांति को अनुभव करके वैसा ही बनना चाहिए।

3625.सभी यज्ञों से ब्रह्म यज्ञ ही बढिया है। ब्रह्म यज्ञ के लिए धन,वस्तु और मनुष्य की ज़रूरत नहीं है। उसके लिए स्थान की भी ज़रूरत नहीं है। जो ब्रह्म यज्ञ करना चाहता है, उनको पहले इस शरीर और संसार को जानना समझना चाहिए। तब सत्य और असत्य का पहचान होगा। नश्वर और अनश्वर का पता चलेगा। उनमें शरीर और संसार नश्वर होता है। बोध ही अनश्वर है, जो नश्वर का कारण है। मैं  का अनुभव बोध नहीं  है तो यह शरीर और संसार नहीं रहेगा। शरीर और संसार न होने पर भी मैं रूपी बोध सत्व अनश्वर होकर स्थिर रहता है। इस बोध के लिए अमुक स्थान या काल नहीं है। वह सर्वव्यापी सर्वकाल स्थित मैं रूपी अनुभव ही है। बोध सर्वव्यापी होने से दूसरी एक वस्तु हो नहीं सकता। प्रपंच ही दूसरी वस्तु होने के जैसा लगता है। यह परस्पर विरोध है। क्योंकि प्रकाश से अंधकार और अंधकार से प्रकाश नहीं हो सकता। लेकिन अंधकार होने सा लगता है।प्रकाश की पूर्णता में अंधकार मिट जाता है। वैसे ही अखंडबोध में प्रपंच रूप अस्थिर हो जाते हैं। रूपप जो भी हो, उसमें बोध ही भरा रहता है। बोध को मात्र देखनेवाली आँखों में प्रपंच नहीं होगा। जो जीव स्वयं को अखंड बोध जानकर ,दृश्य जगत में स्वयं बने बोध को मात्र अर्थात् ब्रह्म को मात्र देखता है, वह दर्शन तैलधारा जैसे बनना बनाना ही ब्रह्म यज्ञ है। वैसे ब्रह्म यज्ञ करनेवाला ब्रह्म ही है।

Saturday, August 24, 2024

मानव का असली आनंद

 नमस्ते वणक्कम्। साहित्य बोध महाराष्ट्र इकाई को।

23-8-24

विषय ---समर्पण।

विधा --अपनी हिंदी अपने विचार स्वतंत्र शैली।

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समर्पण  मेरा  काव्यग्रंथ 

  मेरे गुरुवर के चरणकमलों पर।

 यहां फूल माला ईश्वर को समर्पण।

  वीरों के तन-मन-धन,

    देश के लिए समर्पण।

  पहली कमाई माता के

 कर कमल में समर्पण।

प्रेमिका के लिए समर्पण।

 मेरी कमाई पत्नी पुत्रों के लिए।

समर्पण! समर्पण। समर्पण।।


 माता पिता के समर्पण में 

 संतानों का उत्थान।

  एक दूसरों के समर्पण रहित 

 जीना  है कैसे जग में।

 मातृभाषा  के लिए,

 मातृभूमि केलिए,

 अपनी जाति के लिए।

 अपने धर्म के लिए।

 अपने समाज के लिए 

 समर्पित जीवन ही सानंद जीवन।।

 आज़ादी लडाई‌ के  त्यागियों  के लिए,

 श्रद्धांजलि समर्पण।

 दिव्य शक्ति प्राप्त करने

 तन मन धन आत्म समर्पण।

 एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Friday, August 23, 2024

वाच्य बदलना , चाहिए का प्रयोग

 [21/08, 5:07 pm] sanantha.50@gmail.com: वाच्य

 राष्ट्र भाषा 


 माताजी खाना बनाती है। (सामान्य वर्तमान काल)

 माताजी से खाना बनाया जाता है।

 बनाएगी !( भविष्यतकाल)

माताजी से खाना बनाया जाएगा।

 बनाया।( भूतकाल)

 माताजी से खाना बनाया गया।

  In the above voice change 

 We are converting verb in to past tense.

 In the  above sentences.

 According to tense 

 जाता है, जाएगा गया।

 Object  खाना पुल्लिंग।

  Instead of  खाना  if object is रोटी।

 Verb change like

 रोटी बनाई जाती है।

रोटी बनाई जाएगी।


 रोटी बनाई गई।

 -----++----+++++

 वह फल खाता है।

 फल  पुल्लिंग।

 वह +से 

खा भूतकाल खाया ।

 उससे फल खाया जाता है।

 उससे फल खाया जाएगा।

 उससे फल खाया गया।

   --------------७

अभ्यास के लिए 

सीता पत्र लिखती हैं।

राम चिट्ठी लिखता है।



 पत्र पुल्लिंग 

चिट्ठी स्त्री लिंग 

 लिखता है। लिखेगा। लिखा।

 अब वाच्य बदलिए।

[22/08, 10:33 pm] sanantha.50@gmail.com: चाहिए का प्रयोग।


 कर्ता +को कर्म के लिंग वचन के अनुसार क्रियार्थक संज्ञा  चाहिए।

 Subject +को , 

according to object's gender and number verbal noun +चाहिए।

 हमें हिंदी पढ़नी चाहिए।

 आपको रुपये देने चाहिए।

 हमको रोटियाँ खानी चाहिए।

उसको  फल बेचने चाहिए।

    उनको कहानियाँ लिखनी चाहिए।

     

 अभ्यास। शुद्ध कीजिए।

 वे दया खाना चाहिए। (दवा स्त्री लिंग)

 नेता को  सेव करना चाहिए।

 सरकार  महँगाई  कम करती है।

 Use of चाहिए।

शुद्ध कीजिए

 शुद्ध कीजिए।

 ने नियम के अनुसार 

 सकर्मक क्रिया के वाक्यों में भूतकाल में ने का प्रयोग करना पड़ता है।

 गलत वाक्यों को शूद्र करने के प्रश्न किया जाता है।

  ने नियम  निम्न  सकर्मक क्रिया   के लिए लागू न होगा।

   लाल, बोल,  भूल, लग,  सक चुक,  मिल  ।


Transitive verb "ने" rule exceptions for ला, बोल, भूल, लग, सक ,चुक, मिल।


१. दोस्त ने मिठाई लायी। गलत

        दोस्त मिठाई लाया।  सही 

        कमला मिठाई लायी।सही 

        पिताजी मिठाई लाये। सही।

 2.राजाजी ने बोला। गलत।

     राजाजी बोले ! सही।

     विजया बोली।

    प्रेम बोला।

   प्रेमा बोली।

--------

3.राम ने कविता भूली! Wrong.

 राम कविता भूला । Correct

4.  सीता ने गाने लगी। गलत।

      सीता गाने लगी।

    5.मोर ने नाचने लगा । गलत

       मोर नाचने लगा। सही।

6.    उन्होंने पढ़ सका।  गलत 

        वे पढ़ सके।

        सीता बोल सकी।

         वह सीख सकता।

 7.कमला ने लिख चुका। गलत 

    कमला लिख चुकी।

     विजय दे चुका।

 विजया बोली चुकी।

 8.राम ने सीता को मिला । गलत। Two mistakes.

 One ने another मिल।

  தமிழ் போன்று சிந்தையை என்று வராது. 

 मिल வினை முன் से வரும்.

 से मिल।

 राम सीता से मिला।

 सीता राम से मिली।

  अध्यापक मंत्री से मिले।

  ला, बोल , भूल 

 लग सक चुक  मिल।

याद रखिए।

 समझ   धातु दोनों अकर्मक सकर्मक रूप में सही है।

 मैं  समझा। मैंने समझा।

 वे  बात समझे।

 उन्होंने बात समझी।

 एस. अनंत कृष्णन चेन्नई तमिलनाडु हिंदी प्रेमी प्रचारक।

Wednesday, July 10, 2024

Hindi

 தமிழ் இலக்கியம்

 நிறைந்த செம்மொழி.

 மிகவும் பழமையான மொழி.

உலகின் தொன்மையான மொழி.


 ஹிந்தி வரலாறு அறிந்து கொள்ளுங்கள். 

 தமிழ் இளைஞர்களே!


       ஹிந்தி கடி போலி என்ற பெயரில் 

 இரண்டரை மக்கள் டில்லி மீரட் ஆக்ரா பகுதிகளில் பேசப் பட்ட  மொழி.


 அது ஹிந்தி யாக வளர்ச்சி பெறத் தொடங்கியது 1900 கி.பி.

 அதாவது 124ஆண்டுகளான மொழி.

 இன்று உலகில் மூன்றாவது 

பெரிய மொழி.

 தமிழகத்தில் 15000ஹிந்தி பரப்புனர்கள்.

 இரண்டு லட்சம் மாணவர்கள்.

 தமிழக அரசு ஆதரவின்றி படித்து வருகின்றனர்.

 பொது மக்கள் ஹிந்தியை ஆதரித்து பேசியும் வருகின்றனர். 

கவிப் பேரரசர் கண்ணதாசன்  ஹிந்தி மயிலே ஆடு.

 தாயகம் உன்னைத் தாங்கும்

 என்று  கவிதை பாடியுள்ளார். முத்தமிழ் காவலர் 

கி. ஆ. பெ விஸ்வநாதன் அவர்களும் இறுதி காலத்தில் ஹிந்தி படிக்க வேண்டும் என்று 

கூறியுள்ளார். பேராசிரியர் 

 சாலமன் பாப்பையாஅவர்களும்

ஹிந்தி அவசியம் பற்றி கூறியுள்ளார்.


 ராமேஸ்வரம் கன்னியாகுமரி போன்ற ஸ்தலங்களில் சங்கு வியாபாரிகள் ஹிந்தி பேசு கின்றனர்.

   1900 த்திற்கு முன்னால் இருந்த ஹிந்தி இலக்கியம்  ஹிந்தி அல்ல.

 வித்யா பதி  மைதிலி மொழி 

 துளசிதாசர் அவதி மொழி 

 மீரா சூர்தாஸ் வ்ரஜ பாஷை.

 கபீர் கலப்பட மொழி.


    1900ஆண்டுதான் பாரதேந்து  ஹரிச்சந்திரர் கடிபோலியில் இலக்கியம் படைத்தவர்.

 அவர் தன் தோஹையில் 

 தாய்மொழி முன்னேற்றமே 

அனைத்து முன்னேற்றத்திற்கும் 

 ஆணிவேர் என்று கூறியுள்ளார்.


  பாரதத்தில் பத்துக் கோடி தமிழர்கள்.

 அதில் 40%திராவிடக்கட்சி எதிர்ப்பு.

   பாஜகவின்   செயல்பாடு 

தமிழின் பெருமையைசெங்கோல்  பாராளுமன்றத்தில் வைத்து பெருமை படுத்தியது பாராளுமன்றத்தில் தமிழ் இலக்கியங்கள் பேசுவது புறநானூறு திருக்குறள் புகழப்படுவது என தமிழ் புகழ் வடநாட்டு மக்கள் தமிழ் அறியத் தூண்டு கிறது.

 ஹிந்தி பழம் பெரும் மொழி என்று கூறவில்லை.

 அதன் பெரும் வளர்ச்சி வியக்கத்தக்கது.

 இதை தமிழ் இளைஞர்கள் புரிந்து தெளிய வேண்டும்.

  தமிழ் வழி பள்ளிகள் மூடப்பட்டு 

 தமிழ் பேசுவது அழகல்ல என்ற மன நிலை தமிழகத்தில் மட்டுமே.

    அரசுப் பள்ளிகளில் ஆங்கில வழி பெருமை அல்ல.

  மக்கள் இளைஞர்கள் சிந்திக்க வேண்டும்.


சே. அனந்த கிருஷ்ணன்.

 ஓய்வு பெற்ற தலைமை ஆசிரியர்.

 ஹிந்து மேல்நிலைப் பள்ளி திருவல்லிக்கேணி.

 

 

 


  

Tuesday, March 1, 2016

रश्मिरथी कथा सार


1.  "रश्मिरथी " की कथावस्तु  को संक्षिप्त रूप  में  प्रस्तुत कीजिये   I


   रश्मिरथी  रामधारीसिंह  दिनकर जी का खंड काव्य हैं.
इसमें  महाभारत  का अनुपम दानी  कर्ण  का चित्रण  मिलता  है I

               रश्मिरथी  का अर्थ होता है ,सूर्य की किरणों  का  रथ I   सूर्य के बेटे ,कुंती पुत्र  महारथी  कर्ण  का यशोगान  करना ही  काव्य का उद्देश्य है I महाभारत  में यशस्वी  दानी पात्र कर्ण हैंI

कर्ण  की कथा की पृष्टभूमि  में वह  अपनी माँ  से  ठुकरा हुआ  पात्र  हैI  कर्ण की माँ  कुमारी थीIतब  कर्ण  का जन्म हुआI लोक मर्यादा की रक्षा के लिए कुंती ने  अपने नवजात शिशु को एक  मंजूषा में बंद करके नदी में  बहा दियाI  वह मंजूषा  अधिरथ नाम के सूत को मिलीI 
अधिरथ  संतान भाग्य से वंचित थाI  मंजूषा में कर्ण-कुंडल  से युक्त तेजोमय  शिशु को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो गया Iअधिरथ और उनकी पत्नी राधा दोनों अति प्यार से बच्चे को लालन-पालन करने लगेI.
बच्चे का नाम  कर्ण  पड़ाIराधा के पालित होने से कर्ण का दूसरा नाम पड़ा राधेयI

    कथा अति प्राचीन काल की हैI हस्तिनापुर  का  प्रतापी राजा ययाति थाI  उनके  बाद उनका छोटा पुत्र  पुरु  राजा  बनाI पुरु वंश  में  भरत  हुए I  आगे इसी वंश में कुरु  पैदा हुए I उनके नाम से  उनके वंशज  कौरव  कह्लाये  गए I द्वापर युग के  अंत  में महात्मा शांतनु  का जन्म हुआI शांतनु  और गंगा  की शादी  हुई I शांतनु  का  पुत्र था  देवव्रतI शांतनु  ने निषाद कन्या सत्यव्रत  से शादी की I सत्यव्रत के  पिता के शर्त  के अनुसार  देवव्रत  ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा  की I इसलिए देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा I शांतनु और सत्यव्रत  के दो पुत्र हुएI उनके नाम थे  चित्रांगद और विचित्र वीर्यI चित्रांगद  को  गन्धर्व  ने युद्ध में मार डाला I
  युद्ध क्षेत्र में  वीर गति मिली I भीष्म  ने जबरदस्त अम्बिका और  अम्बालिका  को ले आयेI उन दोनों की शादी विचित्र वीर्य से हुई I पर क्षय रोग से पीडित विचित्र वीर्य  मर गया Iसत्यवती  वंश वृद्धि  की चिंता में  थी Iभीष्म  की सलाह  से वेदव्यास  को सत्यवती ने बुलाया और अनुरोध किया  कि  अम्बिका और अम्बालिका को  पुत्र  दें I  वेदव्यास अम्बिका से मिलने गए तो उनके भयानक रूप देखकर डर गयी  और आँखें बंद  कर  लीI  इसी कारण से अम्बिका  का  पुत्र अँधा हुआ I उनका नाम  पड़ा ध्रुतराष्ट्र I 

उसके बाद छोटी बहु अम्बालिका  गयी ,डर  के कारण उसका मुख पीला पड़ गयाI उसके  पुत्र  का  नाम  पीलापन पड़ने से पांडू   पड़ा I गंधार  देश  के राजा सुबल गांधारी से ध्रुतराष्ट्र  की शादी हुई I पांडू राजा की दो शादियाँ हुईंI पहली  पत्नी शूरसेन की पुत्री  पृथा  या  कुंती  थी  और  दूसरी  थी 
मद्रदेश  की राज  कन्या  माद्री के  साथ I 
   कुंती को विवाह के पहले ही कर्ण का जन्म हुआ I कुंती  ने लोक लज्जा से बचने  शिशु को एक मंजूषा में बंद करके नदी में  बहा दिया  I  वही  रश्मिरथी  का  नायक  कर्ण है I
    पांडू ऋषी  के शाप के  कारण  स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध नहीं रख सकते I पांडू  ने कुंती से संतानोत्पत्ति  के लिए  आग्रह किया I कुंती को  शादी  के पहले ही एक मन्त्र मालूम था,जिसके बल अविवाहिता  को कर्ण का  जन्म हुआ I  अब उसी मन्त्र से धर्मराज  को बुलाया और युधिष्ठिर का जन्म हुआI  पवन देव  से  भीम और इंद्र  से अर्जुन  का  जन्म हुआ I माद्री के गर्भ  से अश्विनी कुमारों  की दया से   दो पुत्र हुए -नकुल और सहदेव  I  पांडू के निधन होते  ही कुंती ने पाँचों पुत्रों का पालन पोषण कियाI  
  ध्रुतराष्ट्र के  सौ पुत्र हुए. बचपन से ही पांडू पुत्र और्  ध्रुतराष्ट्र के पुत्रों में द्वेष भाव और दुश्मनी थी  I

ध्रुतराष्ट्र  का  बड़ा  पुत्र  दुर्योधन था  I  युधिष्ठिर  ने आधा राज्य माँगा  तो  

दुर्योधन ने   नहीं कह दिया I  कृष्ण दूत बनकर गया तो  दुर्योधन  ने कहा --हे कृष्ण !सुई के नूक बराबर  की भूमि  भी पांडवों के लिए नहीं दूँगा  I  अब  पांडव युद्ध  करने विवश हो गए I

रश्मिरथी  का उद्देश्य कर्ण की कीर्ति पर चार चाँद लगाना हैI इसमें  दिनकर जी को पूरी सफलता मिली  है I

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२. 'रश्मिरथी "  के आधार  पर प्राकृतिक सौन्दर्य का  वर्णन कीजिये I

     मनुष्य  मन   प्रकृति  के  सुन्दर  दृश्यों   को देखकर प्रफुल्लित हो जाता है  I  मनुष्य जीवन  की तुलना प्रकृति  से  करने  पर अत्यंत  आनंद  होता है  I कवि गण  तो प्रकृति  में  मानवीकरण  करने में  
आत्मानंद का  अनुभव  करते हैं I प्राकृतिक चित्रण  कवि  आलंबन रूप ,उद्दीपन रूप ,अलंकारों के रूप  में  करता  है  I

कवि प्रकृति में मानवीय भावना  का आरोपण करता है,  प्रकृति द्वारा नीति ,उपदेश देता  है I प्रकृति में  आध्यात्मिक शक्ति का रूप भी दिखाता  है.  
  रश्मिरथी  में भी कवि दिनकर   उपर्युक्त पृष्टभूमि  के अनुसार प्राकृतिक  वर्णन करते हैं.
 प्रथम दृश्य  में ही  कर्ण  के बारे में  दिनकर  कहते हैं ---
 "वन्य  कुसुम -सा  खिला कर्ण जग की आँखों से दूर "   उल्लेख करके कर्ण को जंगल  में खिले फूल कहते हैं. 
वन्य कुसुम-सा  खिला कर्ण --पूर्णोपमा  का उदाहरण  है. 
कर्ण --उपमेय ;कुसुम --उपमान ,सा -वाचक शब्द ;खिलना --धर्म.
आगे  कहते हैं --
नहीं  खिलते कुसुम मात्र राजाओं  के उपवन  में,
अमित बार  खिलते वे पुर से  दूर कुंज-कानन में.
समझे कौन  रहस्य ?प्रकृति का  बड़ा अनोखा  हाल ,
गुदड़ी में रखती चुन चुन कर  बड़े कीमती  लाल !
    कर्ण  तो कानन में खिले फूल ,गुदड़ी का  लाल --इसमें   कर्ण की क्षमता को वन का फूल सा  खिला कहना ,राजमहल का  उद्यान  तो माली की देख रेख में ,वन्य कुसुम अपने आप खिलता है और अपनी 
सुन्दरता  से ,सुगंध से संसार  को चकित करता है. वैसे ही करना का विकास अपने  आप हो रहा है.
गुदड़ी का  लाल --मुहावरा  और लोकोक्ति  कर्ण के अनुकूल  कवि ने प्रयोग  किया  है.

कर्ण  तो  बादलों से  छिपा सूर्य --प्रकट होगा  ही.
"जलद पटल में  छिपा  किन्तु ,रवि कब तक  रह सकता है ?
वैसे ही कर्ण का पौरुष   फूट पड़ा.
 कवि प्रकृति की तुलना कर्ण  के लिए  मर्मस्पर्शी  है. 
  कर्ण की वीरता देख द्रोण  अर्जुन से  कहने  लगे --
यह  राहू नया फिर कौन /?
कर्ण को राहू कहना  --अर्जुन  का यश नाश करना.अर्जुन चन्द्रमा है ति उसे निगलने  आया  है  कर्ण I
कर्ण  को प्रचंड धूमकेतु  सोचकर मन  में द्रोण  सोचते हैं --
इस  प्रचंडतम   धूमकेतु कैसे तेज हरूँगा  I
 धूमकेतु -कर्ण --धूमकेतु  के आने पर बाकी नक्षत्र मन पद जाते हैं.

 दिनकर द्वितीय सर्ग  को प्रकृति  वर्णन से  ही आरम्भ  करते  हैं.
परशुराम  के  आश्रम  का  वर्णन  यों  करते   करते हैं --

  '" शीतल ,विरल  एक  कानन शोभित अधित्यका  पर,
कहीं उत्स-प्रस्रवण चमकते ,झरते कहीं शुभ्र  निर्झरI
जहां  भूमि समतल ,सुन्दर  है ,नहीं  दीखते हैं पाहन ,
हरियालीके बीच  खड़ा है ,विस्तृत एक उटज पावन ! 

तृतीय सर्ग  में --
पांडव  वनवास  बिताकर आये ---
पावक  में कनक सदृश तपकर --आग में सोना तपकर जैसे चमकता है ,वैसे चमके पांडव.

मानव में छिपे गुण --
मेहंदी में जैसे लाली हो ,वर्तिका -बीच उजियाली हो 

पीसा जाता जब इक्षुदंड, रस की धारा  अखंड 
मेहंदी  जब सहती  है  प्रहार ,बनती ललनाओं का सिंगार !

ईख में मीठा  रस है, मेहंदी शृंगार देता है ,दोनों कष्ट सहते हैं . वैसे  ही गुण छिपा रहता है मनुष्य  में.

ऋतुओं  के  बारे में   दिनकर  जी  कहते  हैं---

"ऋतु  के  बाद  फलों  का रुकना डालों  का  सडना है ,

कर्ण ने अपनी माँ  से  कहता  है -- जो होगा ,होगा ही ; दुखी होने से कोई लाभ नहीं है ;
प्रकृति  में धूमकेतु प्रकट होना --
चंद्रमा-सूर्य  तम  में जब  छिप जाते हैं ,
किरणों  के अन्वेषी जब अकुलाते  हैं ,
तब धूमकेतु बस ,इसी  तरह आता   है ,
रोशनी जरा मरघट में फैलाता है.
  आनेवाले युद्ध  का परिणाम का प्राकृतिक चित्रण  है.
राष्ट्रकवि दिनकर ने रश्मिरथी काव्य में प्रसंगानुकूल  प्रकृति का चित्रण  किया  है.

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3. रश्मिरथी में  प्रदर्शित  सामाजिक आदर्श  सिद्ध कीजियेI

  रश्मिरथी की प्रासंगिक कथा महाभारत होने पर भी  आधुनिक काल के अनुसार  कवि ने  अपने  विचारों को प्रकट किया है.
 उनमें मुख्य है जाति-भेद  का खंडन I  जिस युद्ध को लोग धर्म युद्ध कहते हैं उसे   अधर्म  स्थापित करने में  कवि को सफलता मिली हैI

 प्रथम सर्ग में ही   कवि कहतेहैं कि  मनुष्य  का सम्मान  ,उसके कर्म पर निर्भर है ,न  जाति ,गोत्र पर.
जाति-भेद का खंडन करते हैं I

 देखिये :--'ऊँच नीच  का  भेद न माने ,वही श्रेष्ठ ज्ञानी है ,
              दया -धर्म  जिसमें  हो ,सबसे वही  पूज्य प्राणी है.
   

                       तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं  गोत्र बतलाके,
                       पाते हैं  जग  से प्रशस्ती अपना करतब दिखलाके .

केवल राजमहल में ही बढ़िया सुगन्धित फूल नहीं  खिलते , जंगल में भी खुद फूल खिलते हैं.बढ़ते हैं.
गुदड़ी के लाल भी   होते  हैं. 

वीरों के जन्म-कुल पर ध्यान देना नहीं चाहिए --
मूल  जानना बड़ा कठिन है नदियों का ,वीरों  का ,

जाति जाति का शोर मचाते  केवल कायर.क्रूर .
कृपाचार्य ,द्रोणाचार्य   जाति पर अड़े हैं  तो --

कर्ण --मैं क्या जानूँ जाति? जाति  है भुजदंड!

माँ के प्यार और निर्दयता पर कवि  ने लिखा है-- मार्ग फिसलने पर स्त्री का कलंक और शोक:-
और हाय!  रनिवास चला वापस जब राजभवन  को ,
सब के पीछे चली एक विकला मसोसती मन को I
उजाड़ गए हो स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुंती के पाँव I

कृतज्ञता  का  महत्त्व :--

कर्ण भरी   सभा  में   अपमानित  खड़ा रहा.  दुर्योधन ने  उसको अंग देश का नरेश बनाकर  सम्मानित  किया I कवि  ने  कर्ण बनकर  यों  कहा---

पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
 मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[
"कर्ण और  गल  गया "हाय , मुझपर भी इतना स्नेह I 
वीर बंधु !हम हुए आज  से एक  प्राण ,दो  देह I

परशुराम   द्वारा  शासक  हमेशा स्वार्थी  ,आज भी लोकतंत्र सरकार में भी यही चालू है :---
  "रण  केवल इसलिए  कि  वे  कल्पित अभाव  से छूट सके ,
बढे राज्य  की सीमा,जिससे अधिक जनों को लूट सके I
      --------
रण केवल  इसलिए कि  सत्ता बढ़ें ,नहीं  पत्ता डोले I
भूपों  के विपरीत  न कोई कहीं  कभी कुछ भी बोले I

चुनाव या युद्ध की विजय से अहं बढ़ता जाता है:--

ज्यों -ज्यों  मिलती विजय ,अहम् नरपति  का बढ़ता जाता है,
और  जोर से वह  समाज  के  सिर  पर  चढ़ता  जाता  है  I

ब्राह्मणों की लाचारी  पर  परशुराम :---
  " यहाँ  रोज  राजा ब्राह्मणों  को अपमानित करवाता  है I
चलती  नहीं यहाँ पंडित  की ,चलती नहीं तपस्वी की ,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जय यशस्वी की I

संसार  पर आरोप --लोभी और भोगी संसार --
"चारों  ओर  लोभ की ज्वाला , चारों ओर  भोग  की 'जय '
पाप-भार से दबी धँसी जा  रही धरा पल-पल  निश्चय I

शासक  और समाज की दशा पर आरोप :-
रोक-रोक से नहीं  सुनेगा,नृप -समाज  अविचारी  है ,
ग्रीवाहार  निष्ठुर  कुठार  का  यह मदांध अधिकारी है I

परशुराम द्वारा सच्ची वीरता के लक्षण कवि यों  कहते हैं ---
'वीर  वही है ,जो कि  शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है ,
मानवता के महा गुणों की सत्ता भूल  न जाता  है  I

संसार छल -कपट  से दूर  रहे :--
परशुराम  को पता चल जाता है  कि  कर्ण सूत पुत्र है .
कर्ण  कहता  है ---छली  नहीं  मैं  हाय I किन्तु छल का ही तो यह  काम  हुआ,
आया  था विद्या संचय को ,किन्तु व्यर्थ बद नाम हुआ I
 छल  से  पाना  मान  जगत  में किल्विष ,मल ही तो है ?
ऊँचा  बना  आपके  आगे ,सचमुच यह छल ही  तो  है I

श्री कृष्ण  शान्ति स्थापित  करने  में असफल हुए  तो 
कर्ण से युद्ध  के परिणाम प्रकट करते हैं ---
बाहर शोषित  की  तप्त धार ,भीतर  विधवाओं की  पुकार I
निरशन ,विषरण  विल्लायेंगे ,
बच्चे अनाथ  चिल्लायेंगे I

अधर्म युद्ध :-- महाभारत का युद्ध धर्मयुद्ध था या नहीं, उपंसहार यह निकलता है कि कोई भी युद्ध धर्मयुद्ध नहीं हो सकता। युद्ध के आदि, मध्य और अन्त सब पापयुक्त होते हैं। जब हिंसा आरम्भ हो गयी, तब धर्म कहाँ रहा? युद्ध मनुष्य इसलिए करता है कि वह जल्दी से अपना लक्ष्य प्राप्त कर ले। किन्तु लक्ष्य की प्राप्ति को धर्म नहीं कहते। धर्म तो लक्ष्य की ओर सन्मार्ग से चलने का नाम है, धर्म साध्य नहीं, साधन को देखता है। किन्तु युद्ध में प्रवृत्त होने पर मनुष्य का ध्यान साधन पर नहीं रहता, वह किसी भी प्रकार विजय चाहने लगता है। और यही आतुरता उसे पाप के पंक में ले जाती है, फिर क्या आश्चर्य कि युद्ध में प्रवृत्त होने पर, कौरव और पाण्डव, दोनों ने पाप किये, दोनों ने विजय-बिन्दु तक पहले पहुँच जाने को सन्मार्ग का त्याग किया। इसके बाद घटोत्कच वध की कथा आती है। कर्ण का पाण्डव सेना पर भयानक कोप देखकर भगवान घटोत्कच को बुलाते हैं। 
           

  रश्मिरथी  खंड काव्य   में  सामाजिक आदर्श  के लिए   निम्न बातें  मिलती हैं---

१. समाज में पटुता की प्रधानता  की ज़रुरत हैं.

२. जाति-भेद मिटाना  है.

3. युद्ध  तो शासकों  के स्वार्थ के  लिए ,न जनता की भलाई केलिए.

4. अविवाहित  माता का पुत्र अपमानित  नहीं.
5. ब्भागावन कृष्ण  के छल  कपट.
६. परशुराम  ,कृपाचार्य ,द्रोण  सब शिष्यों की जाति पर ही ध्यान देते हैं , यह ठीक नहीं  हैं.
७. परशुराम  तो कर्ण की प्रशंसा करते हैं;  युद्ध और  राजनीति  शासकों के स्वार्थ के लिए.
८. कुंती जैसी निर्मम माता का खंडन 

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रश्मिरथी    के  आधार पर  भाषा-शैली की विवेचना  कीजिये I

   रश्मिरथी  की भाषा शुद्ध साहित्यिक खडी बोली है I  भाषा सरल है और तत्सम शब्दों का भरमार है  I     भाषा सहज ,तार्किक और मनोवैज्ञानिक  है I
शब्दों  का प्रयोग  भावानुकूल  है I व्याकरण की दृष्टि से कवि ने  अपनी  रचना शैली को अपनाया है I इसमें लिंग वचन के दोष भी मिलते हैं I 
इस  काव्य में मुहावरों  का प्रयोग भी हुआ  है.
संवाद शैली  का यथोचित प्रयोग  किया गया  है --परशुराम -कर्ण ,श्री कृष्ण -कर्ण संवाद ,कुंती -कर्ण संवाद में पांडव पक्षों के  अधर्म और छल  का प्रकट करके   अपने उद्देश्य का प्रमाणित कर दिया है  कि  महाभारत युद्ध धर्म नहीं ,अधर्म हैI


लिंग  दोष --
अंधड़  बनकर उन्माद उठा ,दोनों दिशी  जय -जयकार  हुई  I

रखा  कर्ण  के सर पर अपना मुकुट  उतार ;
गूँजा  रंगभूमि  में दुर्योधन  का  जय-जय कारI

जय-जयकार  शब्द स्त्रीलिंग /पुल्लिंग दोंनों में  हुआ  है  I

वचन  दोष :- सुयोधन  बालकों  -सा  रो रहा था I
 बालक -सा  रो रहा था ठीक  है I

उर्दू  शब्दों  का प्रयोग :-दिनकर   इस काव्य में --शूरमा .गुदड़ी के लाल ,शाबाश, कुर्बानी ,तकदीर  जैसे शब्दों  का प्रयोग किया  है I
   मुहावरों  का प्रयोग :-

अनोखा समां बांधना ,आँखे खोलकर देखना ,फूले न  समाना ,काँटों में राह बनाना ,गल  जाना,अश्रु गंगा बहाना ,असमंजस  में पड़ना   जैसे मुहावरों का भी प्रयोग हुआ  है.

  १.गुदड़ी के लाल ,२.पत्थर पानी बनना ,3.सर्पिणी-उदर से जो पीयूष न दे पायेगा 4.युग पुरुष  वही  सारे समाज का विहित धर्म गुरु होता है I सब के मन का जो अन्धकार अपने प्रकाश से धोता है.
5.दया-धर्म जिसमे हो ,सबसे  वही पूज्य प्राणी I जैसे सूक्तियों की कमी नहीं  हैं .

थोड़े में कहें तो दिनकर की भाषा खडी बोली सरल ,बोधगम्य और उच्चकोटी  की है. 

   काव्योचित  अलंकार ,रस और छंदों का भी प्रयोग हुआ है I

वह काव्यतत्व के अंतर्गत हैं I वीर ,रौद्र  रस प्रधान हैं Iउपमा,उत्प्रेक्षा ,संदेह ,दृष्टांत आदि अलंकार भी मिलते हैं. 

  भाषा शैली की दृष्टि से रश्मिरथी एक सफल खंड -काव्य है. 

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चरित्र  चित्रण 



             कर्ण 

    रश्मिरथी  खंड काव्य  का  नायक  है कर्ण. सूर्य पुत्र होने के कारण रश्मिरथी  कर्ण का  नाम है I  

     उसका जन्म अविवाहिता कुंती से हुआ;जन्म लेते ही उसकी माँ  ने उसको एक मंजूषा  में बंद करके नदी मन बहा दिया I राजमहल का कर्ण  एक जातिहीन  सूत पुत्र  बन गया Iनदी में बहाई पिटारी अधिरथ  नामक सारथी को मिली I उस की पत्नी राधा थी ;दम्पति निःसंतान थे I इसलिए उसका पालन -पोषण अति प्यारसे  करने लगे. राधा के पुत्र होने सेकर्ण कानाम राधेय  भी है.
 कवि  कर्ण  का परिचय  यों  देता है :-

सूत वंश में पलकर  भी  वह अदभुत  वीर है.

'जिसके  पिता सूर्य थे,माता सती  कुमारी !

 उसका पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी I

सूत वंश में पला,चखा भी नहीं जननी का क्षीर I

निकला  कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर I"

 आजकल डाक्टरों  का कहना है ,माँ के दूध न पीने पर बच्चा दुर्बल बनेगा I
कवि  कहता  है  माँ  का दूध नहीं चखा ,पर कर्ण अद्भुत वीर निकला.

आगे कर्ण की प्रशंसा में कवि  कर्ण को वन्य कुसुम  कहता है.

  नहीं फूलते कुसुम  मात्र राजाओं के उपवन में 

अमित बार खिलते  वे पुर से दूर कुंज -कानन  में I
समझे  कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल ,
गुदड़ी में रखती चुन--चुनकर   बड़े कीमती  लाल I

 इससे सिद्ध है  कर्ण इस  काव्य का नायक  हैI

   कर्ण  अपना  परिचय  यों  देता हैं :-

'मैं  नाम  गोत्र से हीन ,दीन  खोटा हूँ I

सारथी  पुत्र  हूँ ,मनुज  बड़ा छोटा  हूँ  I

 उस  काल  में सामंतिवाद और रूढ़ीवाद  का प्रचलन  था I जाति  और कुल के  नाम से कृपाचार्य  उनको हीन और प्रतिस्पर्धा  में भाग लेने अयोग्य कहते हैं i उनके उत्तर कर्ण स्वाभिमान से देता है. उसके आदर्शवाद और स्वाभिमान  का  परिचय  मिलता है.

     "जाति  -जाति  रटते ,जिनकी  पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति है ये मेरे भुजदंड I
दुर्योधन  ने आचार्य से कहा :--

"बोला - बड़ा पाप  है करना इस प्रकार अपमान ,
उस  नर को जो दीप रहा  हो .सचमुच  सूर्य समान I"

दुर्योधन  कर्ण को अनमोल रत्न कहता है.

 द्रोण  ने  अर्जुन  से  कर्ण को राहू  कहा ;और  कहा --

मुझे  कर्ण में चरम-वीरता  का लक्षण मिलता है.
    इस   प्रकार  प्रथम सर्ग में ही  कर्ण  काव्य के महानायक  के रूप में  चमक 
पड़ता है I कुन्तीदेवी  को मालूम हो गया कि  कर्ण उसी का पुत्र है ;पर 
चुप दुखी मन से चलती  है.

आदर्श  मित्र  कर्ण :--

कर्ण  के मन  में  परिवर्तन लाने की कोशिश में  श्री कृष्ण  कर्ण  से कई बातें

कहते  हैं  और पांडवों  के बड़े भाई  कहकर प्रलोभन भी देते हैं. पर कर्ण 

कृतघ्न बनना नहीं  चाहता .  मित्रता  के मूल्य को कर्ण  ने श्री कृष्ण से कहा ---

 मित्रता बड़ा अनमोल रतन ,कब इसे  तोल सकता  है  धन ?

धरती  की तो  है  क्या बिसात ?आ  जाय अगर वैकुण्ठ हाथ ,

उसको भी  न्योछावर कर दूँ , कुरु पति  के चरणों  पर धर दूँ I

  है ऋणी कर्ण  का रोम -रोम ,जानते यह सत्य सूर्य -सोम I

तन,मन ,धन  दुर्योधन  का  है,यह  जीवन दुर्योधन  का  है I

 सुरपुर से भी मुख  मोडूँगा,केशव !मैं उसे  न  छोडूंगा I

 आगे कृष्ण से कर्ण  कहता  है ---मेरी जन्म कथा  युधिष्ठिर  से मत कहना I

क्योंकि  साम्राज्य न  कभी  युधिष्ठिर  न  लेंगे . सारी सम्पत्ति मुझे  देंगे ,

मैं  भी उसे  न  पाऊंगा, दुर्योधन को  दे जाऊंगा I

पांडव वंचित रह  जायेंगे,  दुःख से न  छूट   वे  पाएँगे I

कर्ण की मित्रता देख  कृष्ण ने  कहा ---

वीर !शत  बार धन्य ,तुझ -सा न मित्र कोई अनन्य I
तू कुरूपति का ही नहीं प्राण 
नरता का  है भूषण  महान !

कुंती  से  कर्ण  ने  कहा --

वे  छोड़  भले ही  कभी कृष्ण  अर्जुन को ,मैं  नहीं छोडनेवाला  दुर्योधन  को I

 ऐसे आदर्श  मित्र  पाना  मुश्किल  है.



कुंती  के बारे में   कर्ण   कृष्ण से कहता है ---

कुंती तो निर्दयी  है .

माँ  का  पय  भीं पिया  मैंने ,उल्टा अभिशाप लिया  मैंने I
वह  तो यशस्विनी बनी रही,सबकी भौं  मुझ पर तनी रही I

कन्या  वह है अपरिणीता,जो कुछ  बीता  मुझपर बीता I

मैं जाति गोत्र से हीन ,दीन  राजाओं के सम्मुख मलीन ,
जब रोज अनादर पाता  था, कह शूद्र पुकारा  जाता था I
पत्थर  की छाती फटी नहीं ,कुंती तब भी  तो कटी नहीं.

कर्ण दानवीर  भी है  I कवि उसकी दानशीलता का  यशोगान यों  करते हैं :-

पहले  ऐसा  दानवीर धरती पर  कब आया था ?
इतने  अधिक जनों को किसने यह सुख  पहुंचाया  था ?
और सत्य ही कर्ण  दान  हित ही संचय  करता था I

वीर  कर्ण ,विक्रमी ,दानी  दान  का    अति  अमोघ  व्रत धारी I

पाल रहा था बहुत  काल  से  एक  पुण्य प्राण  भारी  II
रवि  पूजन  के  समय सामने जो  याचक आता  था,
मुँह  माँगा  वह  दान कर्ण से अनायास  पाता था II


 इंद्र विप्र  के वेश धारण  कर  कर्ण से कवच-कुंडल  मांगते हैं तो  सानंद   कर्ण  देते हुए कहता  है --

कर्ण  का आदर्श सिद्धांत था --

मेघ भले लौटे  उदास हो  किसी रोज  सागर से ,
याचक फिर सकते निराश पर ,नहीं  कर्ण  के घर  से I

देवराज !जीवन  में आगे और  कीर्ति क्या  लूँगा?
इससे बढ़कर दान अनुपम भला किसे , क्या दूँगा  ?
यह  लीजिये कर्ण  का जीवन और जीत  कुरूपति की ,
कनक -रचित निश्रेणीअनुपम  निज सुत उन्नति  की I
हेतु  पांडवों के भय  का,परिणाम महाभारत  का ,
अंतिम  मूल्य किसी  दानी जीवन  के दारुण व्रत  का I

कर्ण की दानवीरता देखकर  इंद्र बोले --
तेरे महा तेज के आगे  मलिन हुआ  जाता हूँ ,
कर्ण !सत्य ही आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र  पाता  हूँ I

दीख  रहा तू मुझे  ज्योति के उज्जवल शैल अचल -सा ,

कोटि -कोटि जन्मों  के संचित महापुण्य के फल -सा I

त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है ,

उनके पूंजी भूत रूप -सा तू मुझको  लगता  है I

 अंत में इंद्र ने कहा--

तू दानी ,मैं कुटिल प्रवंचक,तू पवित्र,मैं पापी ,


तू देकर भी सुखी और  मैं लेकर भी परितापी I

तू  पहुंचा है जहाँ  कर्ण ,देवत्व न जा सकता है ,

इस महान पद को  कोई मानव ही पा  सकता  है  I 

 इंद्र   ने छल किया; 
पहले कर्ण को दुःख हुआ ; उसके बाद मन प्रफुल्लित हुआ ;

क्योंकि बिना कवच कुंडल  के  लड़कर अर्जुन पर विजय  मिलें तो सामान्य योद्धा  की विजय मिलेगी  I 
आदर्श दानी  आदर्श वीर बनने की खुशी  में  हैं.

कर्ण की गुरु-भक्ति :-
    कर्ण  परशुराम  की गरु-भक्ति अनुपम हैं.कर्ण  की सेवा  से परशुराम  अत्यंत प्रश्न थे .गुरु  की निद्रा  न  छूटे,इसलिए  कर्ण जाँघों  में घुसे विष कीट कुरेदने  को सहकर  न हिला और पीड़ा को धैर्य  पूर्वक सहता  रहा I 
गुरु परशुराम  ने कर्ण की प्रशंसा  में  कहा --

"तुम  तो  स्वयं  दीप्तपौरुष  हो  कवच कुंडल धारी ,

उनके  रहते  तुम्हें  जीत  पायेगा कौन सुभट  भारी ?

अच्छा  ,लो  वर भी कि  विश्व में तुम महान     कहलाओगे ,
भारत इतिहास  कीर्ति  से और धवल  कर जाओगे I

आगे  परशुराम  कहते  हैं ---
अनायास गुण ,शील तुम्हारे मन में उगते आते  हैं ,
भीतर  किसी अश्रु -गंगा  में मुझे  बोर नहलाते  हैं I

भय  है ,तुम्हें  निराश देखकर छाती कहीं  न  फट जाए ,
फिरा न लूँ अभिशाप ,पिघलकर वाणी  नहीं उलट  जाएI


 कर्ण  में वीरता,स्वाभिमानी ,मित्रता निभाना ,दान-वीरता ,गुरु-भक्ति ,कृतज्ञता  आदि आदर्श गुण होने  पर भी उसमें अवगुण  भी थे I 

कर्ण  जिद्दी था; कुंती की गलती के लिए  नाराज  होना  तो गुण है ,फिर भी 

 कुंती और कृष्ण की सलाह न  मानना ,शर शय्या  पर लेटे  भीष्म पितामह 

 की  सलाह  न मानना  आदि  दुराग्रह  हैं . अश्विनीकुमार  सर्प की माँग भी कर्ण ने ठुकरा कर दिया I

भाग्यवाद  का समर्थन भी कर्ण  की दुर्बलता  है; वह अपनी बुद्धि बल  का 

प्रयोग  न  कर बार -बार  हार  जाता  है;पर अपने हारों  को विधि की 

विडम्बना  मानता है I

"किन्तु  भाग्य  है बली ,कौन किससे  पाता  है I

वह  लेखा नर  के ललाट  में ही देखा  जाता  है I
***     
**             **                       **                                       **
किस्मत  भी चाहिए ,नहीं  केवल  ऊँची  अभिलाषा I
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सबको मिली स्नेह की छाया ,नयी नयी सुविधाएँ 
नियति  भेजती  रही  सदा पर ,मेरे हित  विपदाएँI

भाग्य की निंदा और स्तुति दोनों  प्रकट  करना कर्ण के अवगुण  है.

अर्जुन  की दुश्मनी और  दुर्योधन की मित्रता  का  निर्वाह  करने  के लिए सब स्वाहा  कर दिया I

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2. अर्जुन  का चरित्र चित्रण 

    रश्मिरथी  खंड -काव्य  में अर्जुन  नाम  का उल्लेख मात्र आरम्भ में मिलता हैI सप्तम  सर्ग में जब कर्ण युद्ध करने लगता है,तभी सामने  आता हैं I 

      प्रथम सर्ग में छात्रों के रण-कौशल का जनता के सामने प्रदर्शन  का आयोजन  था I उस प्रदर्शन में सबसे अधिक प्रशंसा का पात्र अर्जुन  था;तब कर्ण  प्रकट होकर अर्जुन को अपने साथ भिड़ने की चुनौती देता हैI कृपाचार्य  ने कर्ण की जाति-कुल पूछकर उसको अयोग्य कहता है.

  तब से अर्जुन और कर्ण की जान लेवा दुश्मनी  पनपने लगीI 

अर्जुन द्रोणाचार्य  का प्रिय शिष्य था; गुरु द्रोण अर्जुन-सम कोई वीर चमकना न चाहता  था ;इसीलिये एकलव्य का अंगूठे को गुरु दक्षिणा माँगा था i अब कर्ण को देखकर द्रोण चकित रहने लगे ; और उसे राहू मानने लगा I
  अर्जुन वीर था; पर द्रोण की आज्ञा मानकर कर्ण से न भिड़कर चुप रह जाता है. इससे उसकी गुरु-भक्ति  प्रकट होती है I 

  अर्जुन श्री कृष्ण का प्यारा था Iकृष्ण अर्जुन को बचाने  कुरुक्षेत्र  में 

कर्ण  के प्रति अन्याय मार्ग पर चलते  हैं i कर्ण के मानसिक परिवर्तन करना चाहते हैं; उन्हीं के संकेत से  कर्ण को कीट काटता है  और परशराम के पाप का पात्र  बनता है; उन्हीं के इशारे कुंती कर्ण से मिलती है  और पांडवों को जीवित बचाने  कदान माँग लेती है I कृष्ण के संकेत से इंद्र  ब्राह्मण बनकर 
कर्ण से कवच-कुंडल दान माँग लेता है I इतना ही नहीं,निःशस्त्र कर्ण पर धर्माधर्म  पर विचार न करते हुए अर्जुन को बान चलाने को उत्तेजित करता  हैI  थोड़े में कहें तो अर्जुन को बचाने कृष्ण ने साम-भेद -दंड -षड्यंत्र सब का 
प्रयोग  करता  है. 
अर्जुन  श्री कृष्ण का कठपुतला  है  I 

रश्मिरथी में दिनकर जी ने  कर्ण को नायक बनाया है ,अर्जुन तो गौण पात्र है.

गुरु-भक्त शिष्य ,भगवान श्री कृष्ण  का भक्त   अर्जुन  है . वह  गुरु -और

 भगवान के  संकेत  पर चलनेवाला  है  Iअर्जुन  रश्मिरथी काव्य  का  गौण पात्र है  I